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________________ पं. माणिकचंद्र शिवलाल शहा, कुंभोज रचित सपादशतकद्वय परमात्मस्तोत्र ब्र माणिकचंद्र चवरे, जैन गुरुकुल, कारंजा ( महाराष्ट्र) "समय-प्राभूत" आचार्य शिरोमणि प्रातःस्मरणीय कुंदकुंद भगवान के ग्रंथरत्नों में प्रभापुंज मेरुमणि है जिसमें स्वरूप-सुन्दर चिद्धन रूप आत्मतत्व की लोकोत्तम प्रभा का पूर्णरूप से साक्षात्कार होता है, दृष्टिसंपन्न मुमुक्षुओं को आत्मकला में परिपूर्ण यथावत् आत्मदर्शन होता है। इसमें भगवान् परंपरा से प्राप्त उपदेश स्वयंपूर्ण मणिरूप गाथागाथा में यथावत् अंकित है। इसी कारण यह प्राभूत विषयप्रामाण्य के शुद्धरस से स्वयं अत्यंत समृद्ध है। ग्रन्थान्तर्गत विषय जीवन के लिए अत्यावश्यक श्वासोछ्वास से भी अधिक मात्रा में अपनी महत्ता रखता है। इस कलिकाल में मोक्षमार्ग के प्रामाणिक साधकों का यह एकमात्र परमभाग्य है कि उनके लिए यह दुर्लभ चिंतामणि रत्न का अखण्ड प्रकाश आज भी उपलब्ध है। आचार्यप्रवर अमृतचंद्रजी का समयप्राभृत पर स्वनामधन्य "आत्मख्याति" भाष्य भी गाथारत्नों के लिए रत्नखचित सु-वर्ण का सुन्दरतम कुन्दन बन गया है। गूढ़ विषय सर्वत्र स्पष्ट प्रतिभासित होता है। आचार्य का जैसा भावों के ऊपर निर्बाध अधिकार है, उसी प्रकार आचार्यश्री की स्वभावसुन्दर सालंकार भाषा भी सर्वत्र भावपूजा के लिए सावधान समर्पित है। यह विषय के साथ आदि से अन्त तक एकरस एकनिष्ठ है मानो चिदानन्द प्रभु को अमृतरस से पूर्ण अमृतकुंभों के द्वारा अभिषेक करती है। सुस्वर ध्वनि से गान करती हो, उसे कहीं किंचित् भी थकान नहीं है। पद-पद पर भाषा-देवता ने शब्दरत्नों के द्वारा भावरत्न की जो अलौकिक पूजा की, गद्य-पद्य में आत्मप्रभु का जो लोकोत्तम गुणगान किया, वह भी तालबद्ध नृत्य के साथ सुमधुर होने से अतीव मनोहारी हो गया है। संक्षेप में यही कह सकते हैं कि यहाँ शब्दब्रह्म का परब्रह्म के साथ अटूट गाढ़ आलिंगन है। ऐसा लगता है कि समर्पित शब्दब्रह्म परब्रह्म के स्पर्श से सजीव हो गया है और निराकार परब्रह्म साकार हो गया है, अमृतिक टंकोत्कीर्ण मूर्तिमान हो गया है। ऋद्धिप्राप्त इन्द्र भगवान के दर्शन के लिए हजार नेत्र बनाता है, तब संतोष को प्राप्त होता है । परन्तु आचार्य अमृत वन्द्र की असाधारण प्रतिमा शब्दसागर का मंथन करके प्राप्त भावग्राही, अर्थवाही हजारों शब्दों के द्वारा निरन्तर भावपूर्ण आत्मदर्शन कराती हुई अघातो नहीं। "एक" शब्द का सातसौ से अधिकबार साहस में निर्द्वन्द्व होकर यथार्थ अर्थ में प्रयोग करके भगवान् की ॐकार ध्वनि के साथ जो क्रीड़ा हुई, वह शब्दशक्ति का अपूर्व विकास मानना होगा। आचार्य अमृतवन्द्र का अध्यात्म साहित्य परमात्मतस्व का साक्षात्कार कराने में समर्थ हजारों शब्दरत्नों का शान्तरस से भरापूरा गम्भीर रत्नाकर ही हैं । दशा कलश देखिये : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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