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________________ १०४ पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड (i) इन ग्रन्थों का निर्माण ईसापूर्व प्रथम सदी से तेरहवों सदी के बीच हुआ है। इनके लेखक न सर्वज्ञ थे, न गणधर ही, वे आरातीय थे। (ii) इन ग्रन्थों के आगम-तुल्य अतएव प्रामाणिक माने जाने के जो दो शास्त्रीय आधार हैं, वे इन पर पूर्णतया लागू नहीं होते। ( iii ) आचार्य कुंदकंद का अध्यात्मवादी साहित्य अमृतचन्द्र एवं जयसेन ( १०-१२ वी सदी ) के पूर्व प्रभावशाली नहीं बन सका । फिर भी, इसकी ऐतिहासिक महत्ता मानी गई। इसी से उन्हें स्वाध्याय के मंगल में गौतम गणवर के बाद स्थान मिला । यह मंगल श्लोक कब प्रचलन में आया, इसका उल्लेख नहीं मिलता, पर इसमें भद्रबाहु जैसे अंग-पूर्व धारियों तक को अनदेखा किया गया है, यह अचरजकारी बात अवश्य है। पर इससे भी अचरज की बात यह है कि अधिकांश उत्तरवर्ती आचार्यों ने उनके बदले उमास्वाति की मान्यताओं को उपयोगी माना । यही कारण है कि जब सोलहवीं सदी में पुनः बनारसीदास ने इसे प्रतिष्ठा दी, तब पंथभेद हुआ। अब बीसवीं सदी में भी ऐसी ही संभावना दिखती है । ( iv ) इन ग्रन्थों में वर्णित अनेक विचार और मान्यतायें उत्तरकाल में विकसित, संशोधित और परिवर्धित हुई हैं । (v ) इनमें वर्णित अनेक आचार-परक विवरणों का भी उत्तरोत्तर विकास और संशोधन हुआ है । .. (vi ) अनेक ग्रन्थों में स्वयं एवं परस्पर विसंगत वर्णन पाये जाते हैं। इनके समाधान की "द्वावपि उपदेशी ग्राह्यो" की पद्धति तर्कसंगत नहीं है। इनके भौतिक जगत संबंधी अनेक विवरणों में वर्तमान की दृष्टि से प्रयोग-प्रमाण-बाधकता प्रतीत होती है। (viii) आशाधर के उत्तरवर्ती आचार्यों ने अनेक पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यताओं को अपनी रुचि के अनुसार अपने ग्रन्थों में स्वीकृत किया है। पापभीरुता, प्रतिमा की कमी तथा राजनीतिक अस्थिरता ने इन्हें स्थिर और रूढ़ मान लिया गया। ( ix ) प्राचीन आचार्यों ने एवं टीकाकारों ने अपने अपने समय में आचार एवं विचार पक्षों की अनेक पूर्व मान्यताओं का संरक्षण, पोषण व विकास किया है। अतः सभी शास्त्रीय मान्यताओं की अपरिवर्तनीयता की धारणा ठोस तथ्यों पर आधारित नहीं है। (x ) इस अपरिवर्तनीयता की धारणा के आधार पर प्रयोगसिद्ध वैज्ञानिक तथ्यों की उपेक्षा या काट की प्रवृत्ति हमारे ज्ञान प्रवाह की गरिमा के अनुरूप नहीं है । अतः हमें अपने शास्त्रीय वर्णनों, विचारों की परीक्षा कर उनकी प्रामाणिकता का अंकन करना चाहिये जैसा वैज्ञानिक करते हैं । इस परीक्षण विधि का सूचपात आचार्य समंतभद्र, अकलंक आदि ने सदियों पूर्व किया था। वर्तमान बुद्धिवादी युग परीक्षण जन्य समीचीनता के आधार पर ही आस्थावान बन सकेगा। आचार्य कुंदकुंद भी यह निर्दिष्ट करते हैं। संदर्भ १. मालवणिया, दलसुख; पं० के० चं० शास्त्री अभि० ग्रन्थ, १९८०, पेज १३८ २. मुनि नंदिघोष; तीर्थकर, १७, ३-४, १९८७, पेज ६३ ३. ज्योतिषाचार्य नेमिचन्द्र; तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा-३, विद्वत् परिषद्, दिल्ली, १९७४, पे० २९६ ४. आर्थिका ज्ञानमनी जी; मूलाचार का आद्य उपोद्घात–१, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९८४, पेज १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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