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________________ ९८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड तो इनमें से कोई भी आचार्य दूसरी सदों का पूर्ववर्ती नहीं हो सकता ( ६८३-५२७ = १५६ ई० )। इन्हें गुरु-शिष्य मानने में भी अनेक बाधक तर्क हैं : ( i ) उमास्वाति की बारह भावनाओं के नाम व क्रम कुंदकुंद से भिन्न हैं। (ii) उमास्वाति ने वट्टकेर के पंचाचार और शिवार्य के चतुराचार को सम्यक् रत्नत्रय में परिवर्धित किया। उन्होंने तप और वीर्य को चारित्र में ही अन्तभूत माना । (iii) कुंदकुंद के एकार्थी पांच अस्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्व और नौ पदार्थों की विविधा को दूर कर उन्होंने सात तत्वों की मान्यता को प्रतिष्ठित किया। (iv) उमास्वाति ने अद्वैतवाद या निश्चय-व्यवहार दृष्टियों की वरीयता पर माध्यस्थ भाव रखा। (v) उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण बताकर जैन विद्याओं में सर्वप्रथम प्रमाणवाद का समावेश किया। (vi) उमास्वाति ने श्रावकाचार के अन्तर्गत ग्यारह प्रतिमाओं पर मौन रखा। संभवतः इसमें उन्हें पुनरावृत्ति लगी हो। (vii) उन्होंने सल्लेखना को श्रावक के द्वादश ब्रतों से पृथक् माना। (viii ) उन्होंने सप्त तत्वों में बंध-मोक्ष का कुंद-कुंद-स्वीकृत क्रम अमात्य कर बंध को चौथा और मोक्ष को सातवां स्थान दिया। शिष्यता से मार्गानुसारिता अपेक्षित है। परन्तु लगता है कि उमास्वाति प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने तत्कालीन समग्र साहित्य में व्याप्त चर्चाओं की विविधता देखकर अपना स्वयं का मत बनाया था। यही दृष्टिकोण वर्तमान में अपेक्षित है। उमास्वाति के समान अन्य आचार्यों ने भी सामयिक समस्याओं के समाधान की दृष्टि से परंपरागत मान्यताओं में संयोजन एवं परिवर्धन आदि किये हैं । इसलिये धार्मिक ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्त, चर्वाय या मान्यतायें अपरिवर्तनी है, ऐसी मान्यता तर्कसंगत नहीं लगती। विभिन्न यगों के ग्रन्थों को देखने से ज्ञात होता है कि अहिंसादि पांच नीतिगत सिद्धान्तों की परंपरा भी महावीर-युग से ही चली है। इसके पूर्व भगवान् रिषभ की त्रियाम ( समत्व, सत्य, स्वायत्तता ) एवं पार्श्वनाथ की चतुर्याय परंपरा थी।" महावीर ने ही अचेलकत्व को प्रतिष्ठित किया। महावीर ने युग के अनुरूप अनेक परिवर्धन कर परंपरा को व्यापक बनाया। व्यापकीकरण की प्रक्रिया को भी परंपरापोषण ही माना जाना चाहिये। यद्यपि आज के अनेक विद्वान इस निष्कर्ष से सहमत नहीं प्रतीत होते पर परंपरायें तो परिवधित और विकसित होकर ही जीवन्त रहती हैं । वस्तुतः देखा जाय, तो जो लोग मूल आम्नाय जैसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं, उसका विद्वत् जगत के लिए कोई अर्थ ही नहीं है। बीसवी सदी में इस शब्द की सही परिभाषा देना ही कठिन है। भ० रिषभ को मूल माना जाय या भ० महावीर को ? इस शब्द की व्युत्पत्ति स्वयं यह प्रदर्शित करती है कि यह व्यापकीकरण की प्रक्रिया के प्रति अनुदार है। हाँ, बीसवीं सदी के कुछ लेखक'' समन्वय की थोड़ी-बहुत संमावना को अवश्य स्वीकार करने लगे हैं। सैद्धान्तिक मान्यताओं में संशोधन और उनकी स्वीकृति उपरोक्त तथा अन्य अनेक तथ्यों से यह पता चलता है कि समय-समय पर हमने अपनी पूर्वगत अनेक सैद्धान्तिक मान्यताओं के संशोधनों को स्वीकृत किया है जिनमें कुछ निम्न हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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