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________________ जैन विद्याओं के कतिपय उपाधि-निरपेक्ष शोधकर्ता संकलित पश्चिमी विद्वानों ने जैन विद्याओं के सम्बन्ध में उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही अपने शोधपूर्ण अध्ययन प्रारम्भ कर दिये थे। भारत में यह कार्य बीसवीं सदी से प्रारम्भ हआ । इस शोध में जैन विद्याओं के धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन के साथ अध्यात्मेतर विषयों पर भी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं विकास की दृष्टि से पर्याप्त वर्णनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन हआ है। जैन' एवं जैन के द्वारा प्रकाशित जैन विद्या शोध विवरणों से ज्ञात होता है कि १९७३-८३ के बीच इस क्षेत्र में शोधकर्ताओं की संख्या में एक सौ दस प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यही नहीं, यह भी पाया गया है कि इन शोधकर्ताओं में जेनेतरों का प्रतिशत लगभग ७९.५ है। इससे ज्ञात होता है कि जैन विद्या का अध्ययन नये शोधकर्ताओं में आकर्षण उत्पन्न कर रहा है। इस समय जैन विद्या के शोधों के अन्तर्गत ललित साहित्य, न्याय-दर्शन, आगम एवं सिद्धान्त, ब्यक्तित्व-कृतित्व, भाषा एवं भाषा विज्ञान, आधुनिक विषय (इतिहास, शिक्षा, अर्थशास्त्र, राजनीति, पुरातत्व आदि आठ विषय) तुलनात्मक अध्ययन और वैज्ञानिक तथ्यों का समीक्षण समाहित है। जैन विद्याओं में अनुसन्धान के मुख्य दो रूप पाये जाते हैं-(१) उपाधि प्राप्ति के हेतु अनुसन्धान (२) उपाधिनिरपेक्ष, उपाधि-उत्तर एवं समय-निरपेक्ष अनुसन्धान । अनेक शोधकर्ता उपाधि-प्राप्ति हेतु निर्देशक के मार्गदर्शन में विशिष्ट विषय पर नियत समय से कार्य करते हैं। इस कार्य से और समुचित आजीविका-क्षेत्र मिलने पर इनमें से अनेक रूचि पूर्वक आगे भी इसी दिशा में शोध एवं लेखन कार्य को चालू रखते हैं। उपाधि-प्राप्ति के उपरान्त किये जाने वाले शोधकार्य को 'उपाध्युत्तर शोध' की श्रेणी में लिया जाता है। इसके विपर्यास में, जैन विद्याओं में प्रारम्भिक शोध उपाधि-निरपेक्ष रही है। इसके कर्णधार प्राचीन पद्धति में शिक्षित विद्वान् रहे है। अनेक मौलिक शोधकर्ता (नाथूराम प्रेमी, जुगलकिशोर मुख्तार आदि) तो आजीविका काल में ही स्वयं की रुचि से जैन धर्म के अध्ययन की ओर मुड़े और उन्होंने उत्तरवर्ती जैन शोध को प्रेरित किया। इन्होंने स्वान्तः सुखाय एवं जन संस्कृति के प्रसार हेतु शोध कार्य किया। यह प्रवृत्ति लेखन को भी जन्म देती है। इसलिए इन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में लेख व अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी लिखे । ऐसे शोधकर्ता उपाधिनिरपेक्ष (अत: निर्देशक-निरपेक्ष) एवं समय-निरपेक्ष शोध की कोटि में आते है। जैन विद्याओं में हो रहे अनुसन्धानों के सम्बन्ध में प्रकाशित विवरणिकाओं में केवल उपाधि-निमित्तक शोधों का ही विवरण रहता है। इनमें उपाधि-निरपेक्ष और उपाधि-उत्तर शोधों की सूचनायें नहीं रहती। इससे ये विवरणिकायें शोध की वर्तमान स्थिति की तथ्यपरक सूचना नहीं करतीं। इन दोनों ही कोटियों में आने वाले शोधकर्ताओं की संख्या पर्याप्त है। इन शोधों का विवरण संकलित करने पर ही जैन विद्या शोध की सही स्थिति ज्ञात हो सकती है। उपाधि-निरपेक्ष शोधकर्ताओं में ऐसे अनेक विद्वान हैं जिन्होंने जैन विद्याओं का गौरव बढ़ाया है । यद्यपि इस कोटि के प्रारम्भिक शोधकर्ता आंग्ल भाषाविद नहीं थे, फिर भी उन्होंने जो काम किया, उसकी जानकारी के लिए आंग्ल भाषाविदों को समुचित भारतीय भाषाओं का ज्ञान करना पड़ा। ऐसे विद्वानों में श्री नाथूराम प्रेमी, पं० जुगलकिशोर मुख्तार, पं० सुखलाल संघवी, पं० दलसुख मालवणिया, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं० फूलचन्द्र शास्त्री आदि के नाम आदरपूर्वक लिये जा सकते हैं । ये सभी प्रायः समाज-सेवी एवं समाज-जीवो रहे हैं। इन सभी ने जैन सिद्धान्त ग्रन्थों के सम्पादन-अनुवाद कार्य के समय जैन संस्कृति के विकास एवं जैनाचार्यों के इतिहास एवं योगदान पर तुलनात्मक समीक्षण लिखकर अपनी गहन शोध-कला का परिचय दिया है। अनेक विषयों पर इनके भाषण व शोध-लेख अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । इनकी सेवाओं के प्रति आदर-भाव व्यक्त करने के लिये जैन समाज की अनेक संस्थाशों द्वारा उनके अभिनन्दन ग्रन्थों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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