SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन माधु और बीसवीं सदी निर्मल आजाद जबलपुर इतिहास साक्षी है कि विभिन्न युगों में विश्व के विभिन्न भागों में सभ्यता और संस्कृति के उन्नयन में राजसत्ता और धर्मसत्ता ने कभी मिलकर और कमी स्वतन्त्ररूप से योगदान किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान के समान भूतकाल में भी मानव को राजभय को अपेक्षा धर्म-मय ने सदा झकझोरा है, उसे धर्मप्राण बनाये रक्खा है। राजसत्ता सदैव बदलती रही है, उसके विकराल रूपों को मानव ने कमी नहीं सराहा। इसके विपर्यास में । सिद्धान्तों ने सदैव मानव को शान्ति एवं सुख की ओर अग्रसर किया है, उसके नैतिक सिद्धान्त स्थिर रहें हैं और आज भी उनके मूल्य यथावत् हैं। धर्म ने मानव को मनोवैज्ञानिकतः प्रभावित किया है। इसीलिये वह राजनीति को तुलना में धर्म से अधिक अनुप्राणित पाया जाता है । वह उसे धर्म की कसौटी पर कसता है। उसे लगता है-धर्म से अनुप्राणित राजनीति ही मानव का मला कर सकती है, उसकी स्वच्छन्द और महत्वाकांक्षी मनोवृत्ति पर नियमन इसका संस्मरण कराने, संस्कार करने के लिए 'संभवामि युगे युगे' महापुरुष जन्म लेते रहते हैं। इस युग में बिहार भूमि में जन्मे महावीर ऐसे ही एक त्रिकालजयी महापुरुष थे । उन्होंने युग के अनुरूप, पार्श्वपरम्परा में, सामयिक परिवर्तन किये, चतुर्याम को पंचयाम बनाया, सचेलअचेल के मध्य दिगंवरत्व को साधना का प्रकृष्ट मार्ग कहा, नये तीर्थ का प्रवर्तन कर साधु-साध्वो, श्रावक, श्राविका के चतुर्विध संघ की स्थापना की। संघ जैन संस्कृति एवं परम्परा का वाहक रहा है। अपने ज्ञान, त्याग, चारित्र .. एवं अन्य गुणों की गरिमा से संघ, प्रमुख साधुओं ने महावीर की परम्परा को जीवन्त बनाये रखने का श्रेय पाया है। ये साधु व्यक्ति नहीं हैं, संस्था हैं। इन पर संघ और समाज का उत्तरदायित्व है। इस संस्था का गौरवशाली इतिहास है। यह हमारी नैतिक संस्कृति की प्रेरक और मार्गदर्शक रही है। वीसवीं सदी के अनेक झंझावातों के बावजद भी इसको उपयोगिता एवं सामर्थ्य पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लग सका है। विभिन्न युग की आवश्यकताओं एवं परिस्थितिजन्य जटिलताओं ने इस संस्था में अनेक परिवर्तन या विकृतियाँ उत्पन्न की है। इनका उद्देश्य आत्मर एवं धर्मप्रचार प्रमुख रहा है। ये परिवर्तन प्रायः बहिर्मुखी हैं, ये हमारे अनेकान्ती जीवन पद्धति के ज्वलन्त प्रमाण हैं । आचार्य भद्रबाहु, आचार्य कालक, आचार्य समंतभद्र, मट्ट अकलंक, आचार्य मानतुंग तथा अन्य आचार्यों के जीवन चरित्र आज भी हमारी प्रेरणा के स्रोत हैं। इनकी साधुता के आदर्श एवं व्यवहार हमारा मार्गदर्शन करते हैं। साधु के शास्त्रीय लक्षण ब्यावहारिक दृष्टि से जैन परम्परा निवृत्तिमार्गी मानी जाती है। अतः इस परम्परा में जीवम का चरम उद्देश्य दुखमय संसार से सुखमय जीवन की ओर जाना माना गया है। इस प्रक्रिया के लिये साधना अपेक्षित है, सरलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy