SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानवीय मूल्यों के हास का यक्ष-प्रश्न : मानव डॉ० रामजी सिंह अध्यक्ष, गांधी विचार विभाग, भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर-७ मानवीय मूल्यों के ह्रास को लेकर भारत ही नहीं, विश्व में आज जितनी चिन्ता प्रकट की जा रही है और उन्हें सुदृढ़ करने के लिए जागतिक स्तर पर "नैतिक अभ्युत्थान" M. R. A., के नाम पर जितने तरह के प्रकट एवं प्रच्छन्न प्रयत्न हो रहे हैं, उनमें अधिकांश समस्याओं के मूल में जाने का साहस नहीं करते । नैतिकता हो या नैतिक मूल्य, शून्य से उद्भूत नहीं होते। वे सब समाज की राजनीति, समाज-व्यवस्था, संस्कृति आदि की उपज होते हैं। व्यक्ति सामाजिक जीव है और वह शिक्षा, संस्कार जीवन मूल्य आदि सब समाज से ही प्राप्त करता है। चिन्तन सब समाज सापेक्ष होता है, तभी उसमें यथार्थता भो होती है, अन्यथा तो वह मात्र बुद्धि-विलास एवं तात्त्विक गगन विहार हो जाता है। अफलातूं का प्रत्ययवाद, तात्त्विक चिन्तन का चाहे जितना मो प्रकृष्ट उदाहरण हो, शंकर का "मायावाद" एवं बंडले का "आभासवाद" तत्त्वमीमांसा का जितना भी सर्वोत्कृष्ट प्रतिरूप हो, वास्तविक जीवन को वह दिशानिर्देश नहीं दे सकता। इसी तरह भारतीय तर्क में जाति, जल्प कौशल तथा आधुनिक भाषा विश्लेषण से भले ही विचार एवं चिन्तन में स्पष्टता मिलतो हो, इसे हम दर्शन के वर्ग में नहीं रख सकते। भाषा के व्याकरण का महत्त्व है, लेकिन वह सजनात्मक एवं सार्थक चिन्तन का ध्येय नहीं बन सकता। अतः इन विद्वानों द्वारा मानवीय मूल्य को समाज से जोड़ने के प्रयास को मैं अत्यन्त शुभ मानता हूँ। लेकिन मानवीय मूल्य और समाज में अन्तःसम्बन्ध के विषय में चर्चा करने के पूर्व हमें मानव और समाज के सम्बन्धों पर एक दृष्टि स्थिर करनी ही होगी। लेकिन वह तभी स्पष्ट हो सकती है, जब हम मानव के स्वरूप को समझ लें । मामव कोई चेतना शून्य जड़ तत्त्व नहीं है, वह चेतन गतिशील एवं प्रतिक्रिया प्रस्तुत करने वाला प्राणी है। वह किसी मांस बेचने वाले की दुकान में पड़े हाड़-मांस का निर्जीव लोथड़ा नहीं, उसमें संवेदन, संवेग आदि भरे पड़े हैं। जड़ तत्त्व की भांति उसकी प्रतिक्रिया बिलकुल यान्त्रिक नहीं होती, वह तो कभी अपने भाव और संवेग का दास दीखता है, कभी उसका नियामक एवं नियन्ता। यह ठीक है कि रोटी के बिना वह जी नहीं सकता, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि केवल रोटी से ही वह नहीं जीता है, कभी तो वह विश्वामित्र के उच्चासन पर जाकर भी भूत को ज्वाला को शान्त करने के लिये धर्म-अधर्म को ताक पर रखकर चाण्डाल के यहाँ जाकर निषिद्ध प्राणी का अभक्ष्य मांस खाकर अपनी प्राण रक्षा करता है, लेकिन कभी रन्तिदेव की तरह भूख से अत्यधिक पोड़ित रहकर भी अपने आगे की थाल अतिथि को बढ़ा देता है, दधीचि बनकर परहित के लिये सहर्ष अपना अस्थिदान और कर्ण बनकर शरीर-चर्मयुक्त कवच भी दे देता है। आधुनिक समय में भी वह माक्स बनकर पीड़ित एवं पददलित मानवता के लिये अपना सुख एवं सौभाग्य भूलकर भगवान बुद्ध की तरह "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" यज्ञ में अपने को अभ्यर्पित कर देता है। संक्षेप में, मानव-जीवन की केवल आथिक और भौतिक व्याख्या करना अनैतिहासिक तो है ही. अ-मनोवैज्ञानिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy