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________________ ३६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड वर्धमान महावीर का जन्म पटना के उत्तर में स्थित कुंडग्राम में ५९९ ई० पू० में हुआ था। वे एक जागोरदार के द्वितीयपुत्र थे और विलासी वातावरण में इनका लालन-पालन हुआ। जैन परिगणन प्रिय होते हैं। तदनुसार, महावीर का पालन पांच सेविकायें ( नर्सेज ) करती थी और वह पांच प्रकार के सूख भोगते थे। युवावस्था में उनका विवाह हुआ । वे एक पुत्री के पिता बने । लेकिन पुत्री, पत्नी एवं राजकाज में उनका मन नहीं लगता था। माता-पिता की ( संभवतः आत्महत्या से ) मृत्यु होने पर उसने अपने बड़े भाई से सन्यास लेने की आज्ञा मांगी। इस समय उनकी आयु तीस वर्ष की थी। बारह वर्ष तक उन्होंने ध्यान किया, उपवास किये । ध्यान के समय वे ऐसा आसन लगाते थे जिसमें एड़ी जुड़ी रहें और ऊपर रहे, मस्तिष्क नीचा रहे और सूर्य के सामने रहे । पूर्ण ध्यान की अवस्था में उन्हें केवलज्ञान या सर्वज्ञता प्राप्त हुई । वह निर्ग्रन्थ हो गये ।। महावीर ने वस्त्रों का त्याग किया। उन्होंने नग्न होकर तीस वर्ष तक स्थान-स्थान पर बिहार किया। वे किसी से बोलते नहीं थे। कहीं भी एक रात से ज्यादा नहीं ठहरते थे। वह कच्चा (या उबाला) भोजन करते थे और छना पानी पीते थे । वे कृमियों को शरीर पर रहने देते थे। वे अपने साथ एक पीछी रखते थे जिससे चलते समय मार्ग में जीवों को हानि न पहुंचे । जनता प्रायः उन पर व्यंग्य कसती थी और उन्हें कष्ट देती थी। लेकिन वे किसी से कुछ नहीं कहते थे । उनका निर्वाण ५२७ ई० पू० में हुआ । जैनों के अनुसार वे बहत्तर वर्ष की उम्र में जन्म, वृद्धावस्था एवं मृत्यु के बंधनों से मुक्त हुए । अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के समान महावीर ने भी जैन सिद्धान्तों का वर्गीकरण और परिगणन किया है । इस वर्गीकरण की कुछ प्राथमिकतायें यहाँ दी जा रही हैं । नौ प्रकार के पुण्य कार्य होते हैं, अठारह प्रकार की पापक्रियायें होती है, पापमय कार्यों के दण्ड के बयासी प्रकार हैं । ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल के भेद से पांच प्रकार का है । इस सिद्धान्त के विश्लेषण की आवश्यकता नहीं है। उनका जीव-शक्ति सिद्धान्त धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। महावीर ने बताया कि सभी सजीव एवं निर्जीव पदार्थों में जीव होता है । पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवं वनस्पति सभी में जीवन होता है। किसी का जीवन लेना सर्वाधिक घृणित कार्य है। निर्मम तर्क के आधार पर एक जैन ग्रन्थ में कहा है. "जो बत्ती जलाता है. वह जीवहत्या करता है। जो इसे बनाता है, वह अग्नि की हत्या करता है।" जैन हाइलोजोइज्म का यह एक चरम उदाहरण है। - जैनों में कर्म या क्रिया के सत्तावन भेद हैं। इनकी प्रकृति कणमय होती है। ये जीव में प्रवाहित होते हैं और उसे भारी बनाते हैं । यह ठीक उसी प्रकार मानना चाहिये जैसे शरीर में संचित यूरिक अम्ल गठिया रोग उत्पन्न करता है और बोरे में बालू भरने से वह भारी हो जाता है। आत्मा या जीव एक बुलबुले या गुब्बारे के समान है जिसमें ऊर्ध्वगामी वृत्ति होती है । कर्म के कारण यह भारी हो जाता है। कर्म न केवल हमारे वर्तमान सांसारिक अस्तित्व या रूप को प्रभावित करता है, अपितु यह हमें जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र में भी फंसाये रखता है । मानव जीवन का उद्देश्य संवर के द्वारा कर्मों का आस्रव रोकना तथा तप के द्वारा एकत्र कर्मो की निर्जरा करना है। यह निर्जरा तब पूरी मानी जाती है जब कर्मबीज पूर्णतः नष्ट हो जाता है। ___ जैन निष्क्रिय धर्म नहीं है। यह ऐसी क्रियाओं की अनुशंसा करता है जिनसे मानव के भूतकालीन कर्म और इच्छायें समाप्त हो जावें । जैन ग्रन्थों में लिखा है, "तुम अपने ही मित्र हो, तुम अपने से भिन्न किसी अन्य मित्र को क्यों खोज रहे हो ? जीव स्वय का निर्माता है। यह सुख-दुःख का कर्ता है, अपने भले-बुरे की दशायें निर्मित करता है, यह नर्क की दुःख-नदी का निर्माण करता है ।" इस दृष्टि को ही क्रियावाद का सिद्धान्त कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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