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________________ ३२ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड सर्वव्यापी व्यक्तित्व का निषेध किया है लेकिन यह अमर आत्म रवं परमात्मशक्ति को मानता है। यह पूर्ण दिव्य पुरुषों, सन्तों, महापुरुषों को मान्यता देता है। महात्मा ईसा भी इसी कोटि के सन्त हैं । जैनों का अहिंसा सिद्धान्त सभी जीवों पर लागू होता है । यह ईसा के दश उपदेशों में से एक है । पश्चिम में इसे पर्याप्त अपूर्णता के साथ ही माना जाता है । सभी भारतीय धर्मों के अनुसार, जैन धर्म भी स्वयं को सर्वोच्च धर्म नहीं मानता। इसके अनुसार, अन्य धर्म वाले भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। किसी भी एक सिद्धान्त में पूर्णता नहीं आ सकती, अतः हमें एक-दूसरे के मतों के प्रति सहिष्णु बनना चाहिये। जैन तत्त्व विद्या __ जैनों के जीवन से सम्बन्धित दृष्टिकोण में हो जैन तत्त्व विद्या का कठिन विषय समाहित होता है। इसके अनुसार, संसार के वस्तु तत्त्व-द्रव्य अनादि और अनन्त है, उनमें उत्साद, व्यय एवं ध्रौव्य की त्रयी युगपत् होती है । रान अपना स्थायित्व एवं व्यक्तित्व बनाये रखता है। गुण और पर्यायों के परिवर्तन के दौरान भी उसकी सत्ता अमिट रहती है। सोने के अनेक आभूषण बनते रहते हैं, पर सोना सोना ही बना रहता है । एक पर्याय नष्ट होती है, दूसरी उत्पन्न होती है, पर मूल तत्त्व यथावत् बना रहता है। पदार्थ और उसके गुण एक दूसरे से पृथक् नहीं हो सकते । यद्यपि दृष्टा के मन में इनके विषय में विभेदक ज्ञान है, फिर भी ये एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते। इसे ही भेद-अभेद वाद कहते हैं। यह न्याय-वैशेषिक मत के विपयसि में है । यह इनमें भेद मानता है । जैनों के अनुसार, ब्रह्मांड की संरचना में छह अनादि और अनन्त द्रव्य हैं । जीव, अजीव, धर्म (गति-माध्यम), अधर्म (स्थिति माध्यम) और आकाश नामक प्रथम पाँच द्रव्यों को अस्तिकाय कहते हैं। इनके अनेक प्रदेश (अवगाहना) होते है। इनमें एक-विमी काल को जोड़ने पर जैनों के जड़-चेतन जगत में छह द्रव्य माने गये हैं। ये द्रव्य दो कोटियों में आते है-जीव (चेतन) और अजीव (अचेतन) । इनमें चेतना के अस्तित्व व अभाव के कारण भेद होता है । जीव जीवन और चेतना से सम्बन्धित है। चेतना भौतिक गुण नहीं है, यह तो आत्मा का स्वलक्षण है । यह पदार्थ-निरपेक्ष गुण है। वस्तुतः आकाश के उस पार आत्मा स्वतन्त्ररूप में रह सकता है। आत्मायें अनन्त है, अनादि है। संसार में जन्म और मृत्यु आत्मा के गुण नहीं है। ये कर्म-बन्ध की दशा की पर्यायें है। इस जड़-चेतन जगत में वर्म-बन्ध के कारण ही जीव शरीर धारण करता है। इस शरीर का माप शरीरधारी के अनुरूप होता है। इस विश्व में चार प्रकार के जीवात्मा होते है-पहले स्वर्गों में रहनेवाले देव होते है। विकास के क्रम में ये मानव से उच्चतर होते हैं। फिर भी, ये स-शरीरी होते हैं। इनका भी जन्म-मरण होता है। स्वर्ग ऐसे स्थान माने गये है जहाँ मनुष्य जन्म लेकर अपने शुभ कर्मों के फलों का आनन्द लेते हैं। देवों को निर्वाण प्राप्ति के लिये मनुष्य जन्म लेना ही पड़ता है। जीवों की दूसरी श्रेणी मनुष्यों की है। इसके बाद तिर्यचों की श्रेणी (पशु और वनस्पति) आती है । चौथी श्रेणी के जीव नारकी कहलाते हैं । ये ब्रह्मांड के निचले भाग में रहते हैं । हम नरक और स्वर्ग की निश्चित स्थिति नहीं बता सकते । लेकिन जैन और हिन्दू यह मानते हैं कि मनुष्य मृत्यु के बाद इन स्थानों में जन्म लेता है । शुभ कर्मी मनुष्य देवगति में तथा अशुभ कर्मी नरक गति में जन्म लेते हैं । आयु पूर्ण होने पर वे पुनः मर्त्यलोक में आते हैं । चारों श्रेणियों के जीव अपने वर्तमान या विगत जीवन में किये गये कर्मों के अनुसार सुखी या दुःखी होते है । वे अपने सहज स्वभाव के अज्ञान से जन्म और मृत्यु के चक्र में रहते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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