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________________ संपादकीय जैन समाज के विश्रत विद्वद्वर पंडित जगन्मोहन लाल जी शास्त्री के साधुवाद ग्रंथ की योजना का प्रस्ताव कुंडल पुर क्षेत्र पर आयोजित अगस्त १९८७ की बैठक में पारित किया गया था। तदनुरूप वर्तमान संपादक मंडल का दो चरणों में गठन किया गया । हमें दुःख है कि इस मंडल के दो प्रमुख एवं अनवरत प्रेरक सदस्य डा. हरीन्द्रभूषण जी, उज्जैन व डा० कंछेदी लाल जैन, रायपुर हमारे बीच नहीं हैं। फिर भी, उनका आशीर्वाद तो हमें है ही। वर्तमान संपादक मंडल ने अरुचिकर परिस्थितियों में भी ग्रंथ-हेतु समुचित सामग्री का संकलन एवं संपादन किया। पूज्य पंडित जी की इच्छानुसार, हमने उनके लिये स्वतंत्र खंड नहीं रखा है, अपितु पंडित परंपरा खंड के ही उप खंडों के अन्तर्गत उनके ब्यक्तित्व एवं कृतित्व की अपूर्व झांकी दी गई है। इस खंड हेतु हमें प्रसन्नता है कि पूज्य पंडित जी ने अपनी सरल आत्मकथा, नयी पीढी के लिये विचार एवं दैनंदिनी के रूप में अपने विविध रूप प्रकाशनार्थ दिये। हमें विश्वास है कि नव-परंपरा का यह कार्य अनुमोदित ही होगा। इस खंड के अतिरिक्त इस ग्रंथ में पांच खंड और हैं। इनमें ध्यान और योग का खंड विशेष ध्यान देने योग्य है। दिगंबर जैन समाज में ध्यान-योग विषयक तुलनात्मक एवं सूचना परक सामग्री, संभवतः सर्व प्रथम, इसी ग्रंथ में दी जा रही है। संपादक मंडल का विचार है कि ध्यान जहाँ व्यक्तित्व को ऊर्जा-संचय से निखारता है, वहीं उसमें व्यक्तियों से बने संपूर्ण समाज को निखारने की क्षमता है। ऐसे उत्कृष्ट साधन को वर्तमान में सर्वत्र सार्वजनिक रूप दिया जा रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में ऐसे महत्वपूर्ण विषय का समाहार करना आवश्यक माना गया। इसके अतिरिक्त. वैज्ञानिक यग में जैन विद्याओं में वैज्ञानिक तथ्यों के समीक्षणात्मक खंड का भी अपना महत्व है। इसमें वर्तमान ., विज्ञान के सात विषयों से संबंधित लेख है जो जैन शास्त्रों पर आधारित है। इस प्रकार की एकत्रित सामग्री पूर्व प्रकाशित कुछ ग्रंथों में भी आई है, पर यहाँ सामग्री की नवीनता पाठकों को मनोहारी एवं ज्ञानवर्धक सिद्ध होगी, ऐसा विश्वास है। ग्रंथ के अन्य तीन खंडों-धर्म-दर्शन, इतिहास-पुरातत्व एवं साहित्य की सामग्री भी बीसवीं सदी के प्रगति शील विचारों के परिप्रेक्ष्य में संयोजित की गई है। इसमें अनेक आशाओं और निराशाओं के बीज हैं। परंपरावाद और प्रगतिवाद के समन्वय के तर्क हैं । इस सामग्री से पाठकों को दो लाभ तो होंगे ही-सूचना वर्धन और ज्ञान वर्धन । अधिकांश लेखों में संदर्भ सूचनायें दी गई हैं जिनसे पाठक अपनी रुचि का संवर्धन कर सकते हैं । ___ इस ग्रंथ की सामग्री तो विशिष्ट है ही, इसके लेखक भी विशिष्ट हैं । पाठक देखेंगे कि ग्रंथ के लेखकों में जैन समाज के परंपरागत सुप्रतिष्ठित लेखक नगण्य ही हैं। इनमें नई पौध ही अधिक है। यह ग्रंथ इस तथ्य का प्रतीक है कि वट वृक्षों के तले भी नई पौध जन्म ले सकती है। इस नई पौध को पनपने के लिये साधुजनों एवं विद्वज्जनों का आशीर्वाद ही चाहिये । लेखकों के अतिरिक्त, इस ग्रंथ की एक और विशेषता भी पाठक देखेंगे। इस ग्रंथ में विविधा है : जैन धर्म और संस्कृति के विविध आयाम, विविध नजरों से । विविधा एकधा से सदैव अधिक मनोहारी होती है, ऐसा संपादक मंडल का विश्वास है। __ संपादक मंडल उन साधु-साध्वी जनों का आभारी है जिनका प्रारंभ से ही इस कार्य में आशीर्वाद रहा है। यह अपने उन सभी देश-विदेश के लेखकों, संस्मरण प्रेषकों, शुमाशंसियों का भी आभारी है जिनके सहयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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