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________________ जैनधर्म : प्राचीनता का गौरव और नवीनता की आशा स्वामी सत्यभक्त सत्याश्रम, वर्धा संसार में धर्म का उद्देश्य यह है कि मनुष्य के व्यक्तिगत और सामूहिक सुख बढ़े और दुख कम हों। पारलौकिक सुख के लिये धर्म नहीं होता। इसकी कल्पना तो इसलिये की जाती है कि इसकी आशा से मनुष्य इसी जीवन को सुखी बनाने के लिये आवश्यक कर्तव्य करता रहे। जैनधर्म का यही उत्कृष्ट ध्येय है । जैन मान्यतानुसार, प्राचीन काल में संसार भोग-भूमि था । दस कल्पवृक्ष उसके जीवन की सारी आवश्यकतायें क्षणमात्र में पूर्ण करते थे । पति-पत्नी जीवन भर आनन्द से रहते थे। उस समय दाम्पत्य प्रेम ही धर्म था। ब्रत, उपवास, देवपूजा, गुरुपूजा आदि धार्मिक क्रियायें नहीं थी। फिर भी, प्रत्येक दम्पति मरकर देवगति में जाता था। इस तथ्य से यह ध्वनित होता है कि यदि किसी को सताया न जावे, संघर्ष न किया जावे, तो प्रेमपूर्ण आनन्दी जीवन बिताने से सद्गति प्राप्त होती है। इस स्थिति में धार्मिक क्रियाकाण्ड या साधु-संस्था की आवश्यकता नहीं होती। जब समाज में संघर्ष और दुख बढ़ते हैं, तब ये आवश्यक हो जाते हैं। इन्हें दूर करने के लिये धर्म होता है। इसलिये धर्म मुख्यतः इसी लोक के लिये है। परलोक तो उसका आनुषंगिक फल है। किसान को खेती करने पर अन्न के साथ भूसा भी अनिवार्यतः मिलता है। पर उसका उद्देश्य तो अन्न ही होता है। फिर भी वह भूसा उपयोगी होता है और उसे वह छोड़ता नहीं है। इसी प्रकार धर्म भी इसी जन्म की समस्यायें हल करता है। इससे यदि परलोक का फल भी भूसे की तरह आनुषंगिकत: मिले, तो उसे छोड़ना क्यों चाहिये? धर्म की आवश्यकता कर्मभूमि में हो होती है, भोगभूमि में नहीं। ... जैनधर्म का अवतरण कर्म भूमि की अनेक व्यक्तिगत और सामाजिक समस्याओं के समाधान हेतु हुआ था। मानव कल्याण के लिये इसका योगदान असाधारण है, गौरवपूर्ण है। वर्तमान युग में इसका गौरव तभी अक्षुण्ण बना रह सकता है जब इसमें समुचित रूपान्तरण एवं धारणात्मक समन्वयत किया जावे। यह प्रक्रिया ही इसके स्वर्णिम भविष्य की आशा है। जैनधर्म के प्राचीन गौरव की गाथा महावीर के युग में हिंसा, पशुवध, यज्ञ और क्रियाकाण्डों का जोर था। उनके पूर्ववर्ती युग में कृषि का समुचित विकास नहीं हो पाया था और पशुओं की बहुलता से कृषि की रक्षा भी एक समस्या थी। मानव ने सम्भवतः अपनी एवं कृषि की रक्षा के लिये पशुवध एवं मांसमक्षण प्रारम्भ किया होगा। इससे पशुओं में कमी होने लगी और कृषि उत्पादन बढ़ने लगा। फलत; महावीर के युग में अन्नोत्पादन बढ़ने से पशुवध अनावश्यक हो गया और उन्हें अहिंसा के सन्देश के लिये अनुकूल सामाजिक परिस्थिति मिली। महावीर ने इस परिस्थिति का लाभ लेकर अहिंसा का इतनी दृढ़ता, सूक्ष्मता एवं व्यापकता के साथ उपदेश दिया कि विश्व में आज तक उनके समान अहिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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