SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहास के पृष्ठों से श्रीमान् बाबा गोकुलचन्द्रजी बाबा गोकुलचन्द्रजी एक अद्वितीय त्यागी थे। आप ही के उद्योग मे इन्दौर में उदासीनाश्रम की स्थापना हई थी। जब आप इन्दौर गये और जनता के समक्ष त्यागियों की वर्तमान दशा का चित्र खींचा, तब श्रीमान सर सेठ हुकमचन्द्रजी साहब एकदम प्रभावित हो गये और आप तीनों भाइयों ने दस-दस हजार रुपये देकर तीस हजार की रकम से इन्दौर में एक उदासीनाश्रम स्थापित कर दिया। परन्तु आपकी भावना यह थी कि श्रीकुण्डलपुर क्षेत्र पर श्रीमहावीर स्वामी के पादमूल में आश्रम की स्थापना होना चाहिये । अतः आप सिवनी, नागपुर, छिंदवाड़ा, जबलपुर, कटनी, दमोह आदि स्थानों पर गये और अपना मन्तव्य प्रकट किया। जनता आपके मन्तव्य से सहमत हई और उसने बारह हजार की आय से कुण्डलपुर में एक उदासीनाश्रम की स्थापना कर दी। आप बहुत ही असाधारण व्यक्ति थे। आपके एक सुपुत्र भी था जो कि आज प्रसिद्ध विद्वानों को गणना में है। उसका नाम श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री है। इनके द्वारा कटनी पाठशाला सानन्द चल रही है तथा खुरई गुरुकुल और वर्णीगुरुकुल जबलपुर के ये अधिष्ठाता हैं। इनके लिये श्रीसिंघई गिरधारीलालजी अपनी दुकान पर कुछ द्रव्य जमा कर गये हैं। उसी के व्याज से .. ये अपना निर्वाह करते हैं। ये बहुत ही सन्तोषी और प्रतिभाशाली विद्वान् हैं। व्रती, दयालु और विवेकी भी हैं। यद्यपि सिं० कन्हैयालालजी का स्वर्गवास हो गया है, फिर भी उनकी दुकान के मालिक चि० स० सिं० धन्यकुमार जयकुमार हैं। वे उन्हें अच्छी तरह मानते हैं और उनके पूर्वज पण्डितजी के विषय में जो निर्णय कर गये थे. उसका पूर्णरूप से पालन करते हैं। विद्वानों का स्थितीकरण कैसा करना चाहिये, यह इनके परिवार से सीखा जा सकता है । चि० धन्यकुमार विद्या का प्रेमी ही नहीं, विद्या का व्यसनी भी है । यह आनुषङ्गिक बात आ गई। मैंने कुण्डलपुर में श्री बाबा गोकूलचन्द्र जी से प्रार्थना की कि 'महाराज ! मुझे सप्तमी प्रतिमा का व्रत दीजिये। मैंने बहुत दिन से नियम कर लिया था कि मैं सप्तमी प्रतिमा का पालन करूंगा और यद्यपि अपने नियम के अनुसार दो वर्ष से उसका पालन भी कर रहा हूँ, तो भी गुरुसाक्षीपूर्वक व्रत लेना उचित है।" मैं जब बनारस था. उस समय भी यही विचार आया कि किसी को साक्षीपूर्वक व्रत लेना अच्छा है, अतः मैंने श्री ब्र. शीतल प्रसाद जी लखनऊ को इस आशय का तार दिया कि आप शीघ्र आवें, मैं सप्तमी प्रतिमा आपकी साक्षी में लेना चाहता है। आप आ गये और बोले-'देखो, हमारा तुम्हारा कई बातों में मतभेद है। यदि कभी विवाद हो गया तो अच्छा नहीं।' हम चप रह गये। हमारा एक मित्र मोतीलाल ब्रह्मचारी था जो कुछ दिन बाद ईडरका भट्टारक हो गया था। उसने भी कहा-'ठीक है, तुम यहाँ पर यह प्रतिमा न लो। इसी में तुम्हारा कल्याण है। हमने मित्र की बात स्वीकार कर उनसे व्रत नहीं लिया। अब आप हमारे पूज्य हैं तथा आप में मेरी भक्ति है, अतः व्रत दीजिये।' बाबाजी ने कहा-'अच्छा आज ही व्रत ले लो। प्रथम तो श्री वीरप्रभु की पूजा करो। पश्चात् आओ, ब्रत दिया जावेगा।' __ मैंने आनन्द से श्री वीरप्रभु की पूजा की। अनन्तर बाबाजी ने विधिपूर्वक मुझे सप्तमी प्रतिमा के व्रत दिये। मैंने अखिल ब्रह्मचारियों से इच्छाकार किया और यह निवेदन किया कि 'मैं अल्पशक्तिवाला क्षुद्र जीव हूँ। आप लोगों के सहवास में इस व्रत का अभ्यास करना चाहता हूँ । आशा है मेरी नन प्रार्थना पर आप लोगों की अनुकम्पा होगी। मैं यथाशक्ति आप लोगों की सेवा करने में सन्नद्ध रहूँगा।' सबने हर्ष प्रकट किया और उनके सम्पर्क में आनन्द से काल जाने लगा। [वर्णी जीवनगाथा-१ से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy