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________________ १०८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड चार-चार फुट ऊँचे हैं । इनकी वेदिकाएँ बाहिर बनी हैं और दर्शनार्थियों को उनका ही प्रथम दर्शन होता है । मूलवेदी की चार जिन प्रतिमाओं के अभाव में उपरोक्त मंदिर की कृतियां अजैन मन्दिर प्रमाणित करेंगी। आश्चर्य यह है कि वह सारी रचना एक दिगम्बर जैन आचार्य की प्रेरणा से है। जहाँ श्रावकों द्वारा वीतराग प्रभ की विशाल रचनाएँ विद्यमान हैं, वहीं “समवशरण मन्दिर" के नाम पर मिथ्या देवों की रचना का जैनाचार्य की प्रेरणाकृत स्वरूप भी है। एक प्रश्न है कि सम्मेद शिखर पर, तीर्थकरों की निर्वाण भूमि पर तीर्थंकर विम्ब स्थापना तो सहेतुक है पर इन देवी देवताओं की स्थापना किस हेतु है ? इसका प्रतिफल तो इनकी पूजा-अर्चा के प्रसार से मिथ्यात्व का सर्वथा अनुचित है। संसार में करोड़ो मंदिर देवी देवताओं के हैं जो उनके आराधकों द्वारा संस्थापित हैं, उनका औचित्य माना जा सकता है पर वीतराग के आराधकों द्वारा जैन मंदिर में इनका स्थापन कैसे उचित माना जा सकता है ? किसी कृष्ण मंदिर में राम की मूर्ति नहीं है-राम के मन्दिर में कृष्ण की मूर्ति नहीं है-पर यहाँ वीतराग के मन्दिर में सरागी की मूर्तियाँ स्थापित हैं। उनका औचित्य कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? यह तो कहा जाता है कि ये जिन शासन के भक्त हैं, अतः स्थापित हैं। पर यह तर्क इसलिए यथार्थ नहीं है कि ये भक्त भक्ति करने की मुद्रा एवं स्थान पर स्थापित नहीं, स्वयं देवमुद्रा में हैं। यह भी तर्क दिया जाता है कि भगवान् के पुण्य समवशरण में असंख्य देवी देवता थे। यह सही है, पर ये समवशरण की बारह सभाओं में अपने अपने कक्ष की सीमा में हाथ जोड़े दिखाये गये होते, तो कोई आपत्ति न थी। तर्क सही होता। पर ये देवी-देवता अपनी मुद्रा में पूरे मंदिर में छाये हैं, अतः इनका औचित्य नहीं है। मैं ऐसी स्थापना को जिनागम के विरुद्ध मानता हूँ। भगवान् महावीर के उपदेश से यह क्रिया बहिर्भूत है। इस सम्बन्ध में एक घटना महावीर जयन्ती की है जो इसके अनौचित्य पर प्रकाश डालती है। महावीर जयन्ती के अवसर पर एक अजैन विद्वान ने भाषण में महावीर परम अहिंसक थे, यह सिद्ध किया। वहीं एक अजैन बंधु ने अपने प्रश्न में कहा कि भगवान् महावीर ने कितने स्लाटर हाउस उस समय बंद कराये थे? कितने कसाई-खाने बन्द कराये ? कहाँ कहाँ इसके लिए सत्याग्रह या अनशन किया? इन प्रश्नों के उत्तर में उस न विद्वान वक्ता के उद्गार स्वर्णांकित करने योग्य हैं। उनका कथन था कि भगवान महावीर ने प्रश्न में कथित कोई कार्य नहीं किये, किन्तु जो किया, वही उनका सर्वोच्च श्रेष्ठतम कार्य अहिंसा प्रचार का था। वह कार्य यह था कि जहाँ "कर्म' कहकर "बलिदान' किया जाता था, वहाँ धर्म के स्थान पर अधर्म-अहिंसा के मन्दिर में हिंसा की प्रतिष्ठा थी। यह विश्वासघात था, धोखा था। डाका डालने की अपेक्षा विश्वासघात से छीनना अधिक पापमय है। भगवान महावीर ने स्पष्ट घोषित किया है कि धर्म के नामपर किया जाने वाला अधर्म याने हिंसा-हिंसा ही है, अधर्म है । यह पतन का कारण है। इस तर्क से प्रकाश पड़ता है कि धर्म के स्थान पर अधर्म के बैठ जाने से धर्म का स्थान छिन जाता है। अतः यह उचित नहीं। मैं समझता हूँ कि वीतराग के मन्दिरों को वीतराग के ही मन्दिर रहने दिया जाता और उन सरागी देवताओं का मंदिर सरागी का स्थान ही रहता, तो वीतरागियों को धोखा न होता। "बनस्पति" नामक तेल शुद्ध वनस्पति तेल के नाम से करोड़ों रुपयों का बिकता है, उसपर कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं है। किन्तु शुद्ध घी में बनस्पति तेल मिला कर बेचा जाय, तो कानूनी जुर्म है। इसी तरह वीतराग मंदिर में सरागी मूर्ति रख कर उन्हें वीतराग मंदिर कहना धोखा है। धर्म के नाम पर अधर्म के प्रचारप्रसार का साधन है, ऐसा मानना है Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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