SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ (ब) गोलापूर्व-इस जैन उपजाति में पंचविसे आदि गोत्र हैं। कहते हैं-एक गांव में तीन पटी थीं, एक में चार-सौ घर थे, अत: वे बीस-बिसे कहलाये, एक में दो सौ घर थे, अत: वे दसबिसे कहलाये और तीसरी पटी में कुल सौ घर थे, अतः वे पंचबिसे कहलाये। १४-१-१९२१ (स) खरौआ और मिठौआ-किसी घर के दो भाइयों में आपसी वैमनस्य बढ़ा और बंटवारा हुआ। एक को वह घर मिला जिसमें कुंआ था। उसका जल मीठा था। दूसरे को जो घर मिला, उसमें कुंआ नहीं था। उसने कुंआ खूदवाया, पर उसका पानी खारा निकला। इस कारण दोनों भाइयों के वंशज क्रमशः मिठोआ और खरौआ कहलाये। (द) दशा हूंमड़-हूमण जाति आबू (राजस्थान) क्षेत्र की एक हिंसक जाति थी। यह जिनसेन आचार्य के उपदेश से जैन धर्म की अनुयायी बनी। १४-१-१९२१ (४) पत्र-कला, विशारद श्री प्रेमराज जी, अजमेर को लिखे पत्र का अंश, दिनांक ९-१२-१९६६ वर्तमान में आगम के अर्थों में भी खींचातानी चल रही है। पण्डितों व साधुओं में भी गुटबंदी-सी हो गई है । कानजी के प्रति द्वेषभाव पैदा हो गये हैं। इसके दो कारण हैं : प्रथम तो यह कि वे लोगों की चालू धारणा-व्यवहारकान्त को खण्डित करने के लिये निश्चयनय का दृढ़ता से प्रतिपादन कर रहे हैं जो व्यवहारैकान्तवादियों को निश्चयकान्त आभासित होता है। दूसरे विद्वानों को अपनी विद्वत्ता पर अभिमान है। वे चाहते हैं कि हमें गुरु मानकर कानजी समझें। दूसरा कारण यह है कि वर्तमान साधुओं में 'आगमोक्त' मूलगुणों की कमी देखकर वे उनको मुनि नहीं मानते, अत: मुनि भी उनसे नाराज हैं। फलतः उसे समाज में गिराने की भावना सबकी है। सेठ तो.... होते हैं, उनको धर्म की समझदारी है ही नहीं। अत: उन्हें 'धर्म डूबा' का नारा लगाकर धर्मभीरु होने से उनको बुद्ध बनाकर अपना मतलब दोनों साध लेते हैं। हम लोग कुछ मध्यस्थता की बात करते हैं, तो समाज के सामने बदनाम करते हैं कि पण्डित लोग वहाँ से रुपया पाते हैं, अतः उनकी पुष्टि करते हैं । यह है समाज की हालत । __ यथार्थ में, मैं अभी प्रत्यक्ष देख या अनुभव करके आया हूँ। वे व्यवहार का निषेध करते हैं निश्चय दष्टि को सामने रखकर । इससे कि उनके पुराने अनुयायी अपने व्यवहार को छोड़ दें और निश्चय की बात को यथार्थ समझें। इसे समझने पर सम्यक व्यवहार उनमें आ जायगा। आ भी जाता है। वे पूजा करते हैं, पंच कल्याणक कराते हैं, अपने को शुद्ध दिगम्बर कहते हैं। उनके द्वारा शुद्ध तेरह पंथ की प्रवृत्ति का स्वीकार करना भी बीस पंथियों को खटकता है। यह तीसरा कारण भी उनके विरोध का है। वे प्रतिमाधारी नहीं, पर अत्यन्त शुद्धाचारी ब्रह्मचारी हैं। सभी लोग दि० जैन धर्म के कट्टर अनुयायी हैं। हमसे ज्यादा कट्टर हैं। सदा स्वाध्याय चलता है। एक-एक अक्षर सूक्ष्मता से पढ़ते हैं। न कोई पंथ स्थापना की भावना है, न कोई आगम-विरुद्ध मान्यता है । मंद कषायी हैं, विरोध से क्रोधित भी हैं, पर अपना काम करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy