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________________ ९४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ | खण्ड जाता है । अधिकांश काम में आनेवाले पत्ते (केला, छेवला, अमरूद) और भाजियों में यह गुण नहीं पाया जाता। वे हरे अवश्य होते हैं । अतः प्रजननी, पुनर्जननी या फिर सड़े गले हरित का सचित्त से व्यवहृत करना चाहिये, अन्य को नहीं । अधिकांश वनस्पति शाकों से संबंधित धारणायें हरित एवं सचित्तता (प्रजननी) के संबंध के अविनाभावी मानने के कारण भ्रामक-सी प्रतीत होती है। इसलिये यह आवश्यक है कि वनस्पतियों की धार्मिक सचित्तता (सजीवता, पुनर्जनन) की दृष्टि से सूची बनाई जावे और तदनुरूप उनकी आहार योग्यता (अतीचारता) निर्धारित की जावे। धावक की प्रतिमायें या आध्यात्मिक विकास की सीढ़ियाँ प्रत्येक श्रावक अपने आत्मिक विकास के लिये अपने अभ्यास व चारित्र्य की पूर्णता के आधार पर ग्यारह सीढ़ियों को पार करने का लक्ष्य रखता है। इनमें पहली और दूसरी सीढ़ी तो दर्शन और व्रतों के रूप में हुई। इन व्रतों को और भी सूक्ष्मतर दृष्टि से एवं निरतिचार साधने के लिये आगे की प्रतिमायें हैं। टीकाकार के अनुसार उच्चतर प्रतिमाओं को तभी धारण करना चाहिये जब वे आगमोक्त विधि से सध सके। उदाहरणार्थ, सामायिक प्रतिमाधारी के लिये चौबीस घंटे की साठ घड़ियों में छह घड़ी अर्थात दस प्रतिशत समय बत्तीस दोष रहित सामायिक हेतु आवश्यक है। यह प्रातः, मध्यांतर और सायंकाल २-२ घड़ी का होना चाहिये। यदि ऐसा व्यक्ति • लंबी दूरी की यात्रा करना चाहता है, तो उसे सामायिक के समय के लिये यात्रा भंग करनी चाहिये । यदि वह ऐसा नहीं कर पाता, तो उसे व्रत प्रतिमा में ही रहकर सामायिक का अभ्यास करना चाहिये। इस प्रतिमा में सातिचार सामायिक किया जा सकता है। इन प्रतिमाओं में ऐसा नहीं है कि जितना सच, उतना ही अच्छा । ऐसी मनोवृत्ति के लिये उच्च भेष की घोषणा न कर शक्ति अनुसार उच्चतर अभ्यास करना चाहिये। पोषध प्रतिमा के संबंध में आहार त्याग के साथ कषाय विजय, इंद्रिय-रस-उपेक्षा की वृत्ति आवश्यक है। यही भी पूर्वोक्त शिक्षाव्रत का तीक्ष्ण व सूक्ष्म धार्मिक रूप है। सचित्त त्याग एवं रात्रिमुक्तित्याग प्रतिमाओं का विवेचन भी सरस है। इनके विषय में कुछ विद्वानों की मतभिन्नता का संकेत टीकाकार ने किया है। कुछ अर्थ विशेष भी किया है। कुछ लोगों ने यहाँ भी पुनरावृत्ति पाकर इनके स्थान पर अन्य नाम भी सुझाये हैं। यह विसंगति टीकाकार को भी लगी है पर उन्होंने इसके बदले कारित और अनुमोदना से रात्रिमुक्तित्याग का अर्थ लेकर इसी नाम का समर्थन किया है। ब्रह्मचर्य के आहार, विहार, व्यापार, प्रवृत्ति और क्रियाकलाप की अच्छी सूचनात्मक विवेचना हुई है। उन्होंने बताया है कि जब दिगम्बर वेश कुछ जटिलताओं में आ रहा है, तब उदासीन ब्रह्मचारी ही धर्मसेवक और प्रचारक के उत्तम कार्य कर सकता है। वह संसार से उदासीन है पर धर्मसेवा से नहीं। आरम्भ त्याग की प्रतिमा परीषहजय का अभ्यास है और गृहत्याग एवं व्यापारादि त्याग का प्रारम्भ है। वह निर्जीव सवारी से विहार भी कर सकता है। परिग्रह त्याग में भी न्यूनतम परिग्रह के बंधन को छोड़ गृहत्याग की वृत्ति और बलवती होती है । बाह्य और अन्तरंग (१०+१४) पारिग्रह के पूर्णत्याग की वृत्ति विकसित होती है। अनुमतित्याग में परिग्रहत्याग की अपेक्षा और भी न्यूनता आती है। वह भोजन का पूर्व निमंत्रण स्वीकार नहीं करता, पर भोजन के समय बुलाने वाले की विनय स्वीकार कर लेता है। यह व्यक्ति अब भिक्ष न होने पर भी भिक्षवत हो जाता है। अन्तिम प्रतिमा में व्यक्ति गृहत्यागी होकर क्षुल्लक-ऐलक वेश ग्रहण कर निर्मोही बनता है तथा आत्म-कल्याण और धर्मसेवा का उत्कृष्ट मार्ग ग्रहण करता है । ऐलक तो निर्ग्रन्थ साधु का लघु भ्राता माना जाता है। वह महाव्रती के समान होता है । वह पीछी रखता है और रात्रि-यात्रा नहीं करता। ऐलक ही उत्तर-सीढ़ी में दिगम्बर वेश धारण कर आत्मकल्याण के आदर्श बनते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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