SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १] श्रावक धर्मप्रदीप टीका : एक समीक्षा ८९ राष्ट्र के रूप में व्यापक मानी गई है। टीकाकार ने यह बताया है कि केवल परोपकार निमित्तक दान या सेवा ही प्रशंसनीय है। अल्प स्वार्थी दान या सेवा को आदर्श तो नहीं माना जा सकता, पर वह अमान्य हो, ऐसा भी नहीं है। श्रावक की दूसरी कोटि के प्रमुख लक्षणों में सात व्यसनों का त्याग तथा अष्ट मूलगुणों का धारण समाहित है। यह आधार उत्तरोत्तर प्रतिमा-श्रेणियों पर आरूढ़ होने के लिये आवश्यक है । यह श्रावक क्रमशः एक से ग्यारह प्रतिमाओं का अभ्यास द्वारा ग्रहण कर उच्चतर आध्यात्मिक विकास के पथ पर आरूढ होता है। श्रावकधर्मप्रदीप की यह विशेषता है कि इसमें पहली दर्शन प्रतिमा का वर्णन तीन अध्यायों के १४७ श्लोकों में विस्तार से किया गया है। इसके विपर्यास में, अन्य दस प्रतिमाओं का वर्णन पाचवें अध्याय के मात्र ४९ श्लोकों में किया गया है। इससे दर्शन प्रतिमा का महत्व समझ में आ सकता है। विद्वान् टीकाकार ने आचार्यश्री के मन्तव्यों को परम्परानुसार पुष्ट करते हुए उन्हें आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी सुविचारित किया है। उदाहरणार्थ, सम्यक्त्व के आठ अंगों में उपगूहन, स्थितिकरण और प्रभावना अंग व्यक्ति की दृष्टि से तो ठीक, पर समाज और परिवेश की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । उपगृहन अंग के विषय में कहा गया है कि व्यक्ति में भावधर्मशून्य द्रव्य आचरण से या असमर्थता से, शिथिलतायें संभावित हैं जो परोक्षरूप से धर्म की ही निन्दा-पात्र होती हैं । वस्तुतः निन्दा दो तरह से उत्पन्न होती है । धर्म पालकों की गलतियों से तथा निन्दकों की अज्ञानता या दुर्भाव से । टीकाकार ने श्रावकों को इस निन्दा के दूर करने के लिये पाँच उपाय सुझाये हैं जो अनुकरणीय हैं। स्थितिकरण अंग विषयक चर्चा में साधु को सकाम संयमी एवं श्रावक को देश संयमी कहा गया है। फिर भी, संज्वलन कषाय के अंश के कारण दोनों ओर ही संयम में बाधा आती है। इससे संयम से विचलन संभव है। संयम को तो असिधारा पर चलने की तुलना में कठिन बताया गया है। इसमें शरीर एवं चित्तवृत्ति की लतायें हैं। रोग, परिषह, बाधा आदि से विचलित होने पर स्थितिकरण स्वाभाविक है। लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिये कि यह प्रक्रिया विवेकपूर्ण हो। हमारा प्रयत्न यह होना चाहिये कि ऐसी स्थिति में धर्म/आचार का सत्स्वरूप समझा कर धर्म मार्ग की ओर प्रवर्तन करायें । यदि हमारी विवेकपूर्ण प्रक्रिया फलवती न हो और विचलन में सुधार न हो, तो संयमी भेष के त्याग के लिये बाध्यता ही उचित है जिससे अन्य संयमियों पर उसका कुप्रभाव न पड़े । टीकाकार ने यह महत्वपूर्ण बात कही है। इस विषय पर समाचारपत्रों में विवाद भी छिड़ा हुआ है। प्रभावना अंग के निरूपण में टीकाकार अन्य मतावलंबियों द्वारा प्रलोभन, प्रताड़न, आदि माध्यमों से किये जा रहे धर्मान्तरणों को अनीतिकर निंद्य एवं हेय मानता है। धर्म की उन्नति धार्मिक उपायों से ही होनी चाहिये । चार प्रकार के दानों द्वारा सेवा को भी धर्म प्रचार का उपाय माना गया है। गृहस्थ के लिये तो स्वार्थ त्याग द्वारा उपरोक्त ८ प्रकार का सेवा कार्य ही धर्म प्रचार का सच्चा उपाय है । इसके लिये अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था करता. विभिन्न रूप में ग्रन्थ प्रकाशित कर जिनवाणी का उद्धार एवं प्रकाशन करना तथा चिकित्सालय आदि खोलना सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। टीकाकार ने इस संबंध में अन्य मतावलंबियों द्वारा की जा रही ऐसी ही कुछ प्रवृत्तियों की प्रशंसा भी की है। जैन श्रावक भी इस दिशा में नाम कमायें, इससे उनके धर्म की सर्वतोन्मुखी प्रभावना होगी। श्रावकों के आठ गुणों में स्वनिन्दा एवं गर्दा के गुण वर्तमान युग में अत्यन्त ही वांछनीय हैं । टीकाकार ने इन्हें विश्वशान्ति के लिये रसायन और महौषधि बताया है। लोभ और अविश्वास की भावना प्रजातंत्र की घातक सिद्ध हो रही है । संवेगादि गुणों का भावन एवं आचरण इस दुष्प्रवृत्ति को दूर करने का व्यक्तिगत उपाय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy