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________________ 9] सूझबूझ एवं वाक्चातुर्य के धनी पण्डित जी के कुछ शिक्षाप्रद संस्मरण ७५ धर्मगृह में भी भाषण दिया और प्रतिष्ठा अर्जित की। इतने दिनों निमंत्रणकर्ता सज्जन ने पंडित जी से न मुलाकात ही की और न उनकी व्यवस्था की जानकारी ही की। जब पंडित जी लौटने लगे, तब उन्होंने सोनी जी से कहकर निमंत्रणकर्ता सज्जन को बुलवाया। उन्होंने उन्हें सलाह दी, “भविष्य में ऐसी भूल मत करना कि किसी विद्वान् को निमंत्रित करो और फिर उसे पूछो ही नहीं ।" विद्वानों की उपेक्षा के भी संबंधित हैं। एक अनेक अनुभव हैं बार पंडित जी पंडित जी के स्मरणकोश में इस प्रकार स्वयं की और अन्य जो छोटे स्थानों के ही नहीं, दमोह, भोपाल जैसे समाज- प्रधान नगरों से कुंडलपुर क्षेत्र के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। इस पर ही अखवारबाजी और राजनीति हो गई । सामाजिक क्षेत्र के अतिरिक्त, साहित्यिक क्षेत्र में भी इस तीर्थ की ओर से पंडित जी को कडुआ घूंट पीना पड़ा है। धार्मिक वृत्ति के संस्कार एवं सम्यक् चारित्र ने ही उन्हें प्रबलित किया है । जब आमंत्रित विद्वानों की यह स्थिति है, तो बिना बुलाये विद्वानों के साथ होने वाले व्यवहार की तो कल्पना ही की जा सकती है । ऐसे अवसरों पर विद्वानों को अपने स्वाभिमान की रक्षा स्वयं करनी पड़ती है । । यह दुर्भाग्य की बात है कि आज भी इस स्थिति से कोई विशेष परिवर्तन आया हो, ऐसा नहीं लगता । दो वर्ष पूर्व महावीर जयंती के अवसर पर जबलपुर में ही एक विद्वान् के साथ ऐसा ही हुआ था मेरे साथ भी शहडोल में ही धर्म प्रचार करने वालों ने इसी प्रकार व्यवहार किया था। समाज के अनेक मुखिया आज भी पंडित को समाज चालित पाठशाला वाला मानते हैं और कहते है, "पंडित जी कौन होते हैं ?” यही कारण है कि समाज में क्रमश: पंडित परम्परा का ह्रास हुआ है और नये शास्त्रज्ञ बीसवीं सदी के अनुसार व्यवहार करने लगे हैं । वर्णी स्मृति ग्रंथ, १९७४ में पंडित जी ने लिखा था कि (१) नास्तिकता की वृद्धि (२) विद्वानों के प्रति सम्मान भावना का अभाव (३) वेतन की अल्पता ( ४ ) पंडितों से कर्मचारी जैसा व्यवहार तथा ( ५ ) व्यक्तिगत जटिलताओं ने इस प्रवृत्ति की गति तेज की है। समाज को चाहिये कि वह इस परम्परा को श्रुत संरक्षण हेतु ही सही, जीवंत बनाये रखे । दूसरे की प्रगति में साधक बनने की प्रवृत्ति आधार पर । पंडित जी से समय-समय पर हुई चर्चा के मेरी ऐसी धारणा बनी है कि वे उपादान को ही सब कुछ मानते हैं, निमित्त को विशेष महत्व नहीं देते परन्तु मैं कार्य संपादन में दोनों को ही बराबर महत्व देता हूँ । इसलिये यह मानता हूँ कि उपादान की योग्यता के साथ-साथ पंडित जी द्वारा अनेक प्रकरणों में दी गई सुविधा, सहायता या साधन के निमित्तों से भी लोगों ने जीवन में प्रगित की है। अपनी संभावित मान्यता के बावजूद भी उनमें परहित निमित्तता की वृत्ति सदा रही है । यहाँ कुछ ही प्रकरण दिये जा सकते हैं । (अ) मेरी व्यक्तिगत सहायता जब पंडित जी १९५३ - ७३ के बीच जैन संघ के प्रधानमंत्री एवं 'सन्देश' के सम्पादक थे, तब मैं कुछ दिनों तक व्यवस्थापक का कार्य करता था । मैं कार्यालय जल्दी निपटा लेता था । मेरी इच्छा थी कि मैं 'साहित्याचार्य' की नियमित कक्षायें पढ़ें और अपना भविष्य सुधारूं । पंडित विरोध करने पर भी कार्यालय की "यदि संस्था के काम का नुकसान न हो मुझे इस बात का भी अनुभव है कि जी ने इस हेतु मुझे न केवल अनुमति दी, अपितु अनेक प्रचारक विद्वानों के साइकिल के उपयोग की भी अनुज्ञा दी। उन्होंने विरोधियों को समझाया, तथा व्यक्ति की उन्नति होती हो, तो बाधक न बनकर साधक बनना चाहिये ।" जैन संस्थाओं के अनेक अधिकारी ऐसी प्रवृत्ति के नहीं पाये जाते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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