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________________ साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ amananeanRDLama रिक जन ने तो मुझे भड़काने का प्रयास किया और अनेक उल्टी सीधी बातें बताकर मेरे मस्तिष्क को भरमाने का प्रयास करने लगा। मेरा मस्तिष्क अस्थिर हो गया। मेरे सामने एक गम्भीर समस्या उपस्थित हो गई, कि मैंने जो मन में संकल्प किया है वह ठीक है ? या जो यह व्यक्ति कह रहा है वो ठीक है ? मैं अपने हृदय की बात पूज्य गुरुदेव के सामने कह नहीं सकता था। उनके तेजस्वी व्यक्तित्त्व के कारण उनके सामने जाने से कतराता था । मैं गुरुणी जी के पास पहुँचा, उन्होंने मेरे उदास चेहरे को देखा, वे समझ गई कि कुछ न कुछ इसके मन में बात है, उन्होंने बहुत ही प्यार के साथ वार्तालाप के दौरान में मेरे हृदय की बात निकलवा ही ली । और मुझे समझाया कि अच्छे कार्य में विघ्न आते हैं, ये विघ्न हमारी परीक्षा करते हैं। सोने को आग में तपाया जाता है ज्यों-ज्यों उसे तपाया जाता है त्यों-त्यों वह अधिक चमकता है। अगरबत्ती को ज्यों-ज्यों जलाते हैं त्यों उसमें से मधुर सुगन्ध फूटती है । मोमबत्ती को जलाते हैं तो प्रकाश होता है वैसे ही हमारे जीवन में ऐसे प्रसंग आते हैं तो हमारे वैराग्य की कसौटी होती है परीक्षा होती है । यदि उस दिन गुरुणी जी महाराज मुझे प्रतिबोध नहीं देते तो मैं इस महामार्ग को शायद ही स्वीकार कर पाता। ___ गुरुणी जी महाराज का वर्षावास गुरुदेव श्री के साथ ही अजरामर पुरी अजमेर में था। मैं प्रति. दिन गुरुणी जी महाराज के पास जाता और उनसे धार्मिक अध्ययन करता । मेरे मन में दीक्षा लेने की तो भावना थी, पर कब लेनी यह निश्चय नहीं था। मैं एक दिन गुरुणी जी के पास बैठा था, गुरुणी जी ने मुझे पूछा-तेरी दीक्षा लेने की इच्छा कब है ? मैंने कहा-जब भी आप फरमायेंगी तभी, मैं प्रस्तुत हूँ। मेरी अपनी कोई इच्छा नहीं, आपकी इच्छा है । आपने ही तो फरमाया था कि शिष्य और शिष्याओं की अपनी इच्छाएँ नहीं होनी चाहिए। उन्हें गुरु और गुरुणी के चरणों में समर्पित होना चाहिए। मैं तो आपके चरणों में समर्पित हूँ। आप जो भी निर्णय लेंगी, वह मेरे हित के लिए ही होगा। मेरी बात को सुनकर गरुणीजी महाराज प्रसन्न हई। उन्होंने गुरुदेव से निवेदन किया-और उल्लास के क्षणों में मेरी दीक्षा सन् १९७३ में अजमेर में सानन्द सम्पन्न हुई। अजमेर से विहार कर गुरुदेव श्री राजस्थान के विविध अंचलों में विचरते हुए अहमदाबाद वर्षावास हेतु पधारे । वहाँ से पूना, रायचुर, बैंगलोर, मद्रास और सिकन्दराबाद वर्षावास सम्पन्न कर गुरुदेव श्री उदयपुर पधारे। पुनः गुरुणी जी म० के दर्शनों का सौभाग्य मिला । मैं छः वर्ष के बाद मम उठा। उस वर्ष सन १९८० में गुरुदेव श्री के साथ ही उदयपुर में चातुर्मास हुआ । उदयपुर वर्षा वास में मैंने गुरुणीजी महाराज से उत्तराध्ययन सूत्र पढ़ा । गुरुणी जी महाराज आगमों को इतना बढ़िया पढ़ाती हैं कि जिसे आगम का तनिक मात्र भी परिज्ञान न हों, वह भी आगम के रहस्य को सहज रूप से समझ लेता है । रूपक और दृष्टान्त के द्वारा विषय का जो विश्लेषण करती हैं वह बहुत ही अनूठा होता है । साथ ही आप इस प्रकार की हित शिक्षाएँ देती है। जो भार रूप नहीं होती । आप मुझे सतत यही शिक्षा प्रदान करती रहीं कि तुम साधु बने हो तो तुम्हें सांसारिक प्रपंचों से सदा अलग-थलग रहना है । जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आ सकते हैं जो तुम्हें साधना के मार्ग से विचलित करने वाले हों। पर तुम्हें उन प्रसंगों में सदा सर्वदा जागरूक रहना है और अपने नियमोप सम्यक् प्रकार से पालन करना है । कभी भी विचलित नहीं होना है। तुम उस गुरु के शिष्य हो, जो महान् हैं । जिनका जीवन तप और त्याग का पावन प्रतीक है । तुम उस माता-पिता की सन्तान हो जो बेदाग हैं । हम श्रमण बने हैं तो हमें श्रमणत्व का उज्ज्वल आदर्श सदा प्रस्तुत करना है। वीर और कायर में यही अन्तर है कि कायर व्यक्ति पीछे हटता है, तो वीर के कदम सदा आगे की ओर बढ़ते हैं। मेरी जीवन सर्जक सद् गुरुणीजी | १६ ternat
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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