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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ || ___ यह उद्यान है, विश्व ज्योति, जन-जन के आरा- तदनुरूप ही उसका ढ़लता जाएगा। आपके जीवन ध्य, वीतराग प्रभु महावीर का । यह निर्मल बगीचा की भी यही विशेषता रही । आपकी मातेश्वरी स्व. जहाँ उच्चकोटि के प्रसून खिल रहे हैं । सम्पूर्ण महासती प्रभावती जी, जो कि अत्यन्त सरल तथा उद्यान हरा-भरा बना हुआ है। कितने ही श्रमण नम्रता की मूर्ति थी, आप उस सुसंस्कारी माता की एवं श्रमणी वर्ग के जोवन पुष्प अरिमित सौन्दर्य गोदी में पली हैं, जहाँ विराग भरा वातावरण था । तथा अनुपम सौरभ से महक रहे हैं । महान् सद्गुणों उन्हीं की महान् प्रेरणा पाकर भ्राता-भगिनी ने की सुमधुर सौरभ को लुटा रहे हैं, जिसे पाकर सभी संयम जैसा असिधारावत अपनाया, तथा जो आनन्दित एवं प्रमुदित हैं। स्वयं भी संसार से विरक्त होकर उत्तम वीतराग इन्हीं उद्यान में एक पुष्प खिल रहा है-वह प्रणीत संयम मार्ग पर बढ़ चली थी। है-सरलमना, संयम-साधना की निर्मल ज्योति, आपके भ्राता साहित्य वाचस्पति, साहित्य परम विदुषी श्री पुष्पवती जी म. सा.। यह पुष्प मनीषी विद्वद्रत्न उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. अल्पायु से ही जनता को सौरभ प्रदान करता रहा सा. है, जो उच्चकोटि के लेखक, प्रज्ञासम्पन्न सन्त है। महासती श्री पुष्पवती जी म. सा. ने इतने वर्ष रत्न है। जिनकी सुन्दर लेखनी ने सर्वत्र आदर तथा की संयम-साधना के द्वारा अपने जीवन को सचमुच सम्मान पाया है। उन्हीं भ्राता की आप भगिनी एक खिलते व महकते हुए पुष्प की भाँति चमकाया है। आपका यशस्वी जीवन सभी के लिए प्रेरणा है। और इस खिलते हुए पुष्प ने ५० वें संयम का का स्रोत बने। साधना के सोपान पर चढकर महक लूटाने का न ' दीक्षा स्वर्णजयन्ती की पुनीत वेला में आपका प्रयास प्रारम्भ कर दिया है। आपके जीवन को हादिक आभनन्दन । शत-शत वन्दन ! एव नमन के निकट से देखने का सौभाग्य मिला है, और जहाँ । साथ यह उज्ज्वल धवल मनोरम पुष्प अधिक से तक अनुभव किया है आपका जीवन महान् है ।। अधिक महकता रहे, खिलता रहे, तथा अपने महान् पूष्पवत् सूकोमल तथा रमणीय तथा कमनीय है। सद्गुणों की सुमधुर सौरभ विकीर्ण करता रहे, इसी निःसंदेह आप सरलमना, भद्र तथा अध्यात्म- उज्ज्वल भावना तथा मंगल कामनाओं के साथ.... साधिका हैं। मन-मन्दिर में ज्ञान का अखण्ड दीप प्रज्वलित करने के लिए ही आपने छोटी उम्र में ही ज्ञानाभ्यास प्रारम्भ कर दिया था। ज्ञानार्जन करके अपने जीवन को अनन्त बना लिया। प्रज्ञा की प्रख- अ न न्त आ स्था के स म न रता, विद्वत्ता से मण्डित आपने अनेक ग्रन्थों का -राजेन्द्र मुनि प्रणयन किया है। इनके पीछे एक मात्र कारण था कि आप बचपन से ही सुसंस्कारी थे, सच्चरित्रता (एम. ए. महामहोपाध्याय) से भूषित जीवन था। बचपन से ही दिये जाने वाले संस्कारों से जीवन का निर्माण होता है। क्योंकि जिन्दगी न केवल जीने का बहाना, बचपन जीवन का उषाकाल होता है, अभिभावक जिन्दगी न केवल सांसों का खजाना। माता-पिता ही नवीन लता के समान चाहे जिधर वह सिन्दूर है पूर्व दिशा का, अपनी संतान को मोड़ दे सकते हैं। वे चाहे तो __उसका काम है, सूरज उगाना ।। उत्तम मार्ग की प्रेरणा भी दे सकते हैं और चाहे तो परम आदरणीया, पर श्रद्धया, सद्गुरुणी जी अधम मार्ग की ओर ! जो जिधर अभिमुख होगा महाराज का मेरे जीवन पर महान् उपकार है । सन् १४ | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन fternational www. lal .aaiNA.
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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