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________________ इस प्रकार वैदिक धर्म में जो ध्यानयोग का स्वरूप है उसे यहाँ पर स्पष्ट दिया गया है। बौद्ध परम्परा में ध्यानयोग का स्वरूप शील, समाधि और प्रज्ञा इन त्रिविध साधना पद्धति में सम्पूर्ण बौद्ध-साधना का दिग्दर्शन है। इनमें 'समाधि' के अन्तर्गत ही ध्यानयोग का स्वरूप स्पष्ट किया है। 'ध्यान' शब्द के साथ ही साथ समाधि, विमुक्ति, शमथ, भावना, विशुद्धि, विपश्यना, अधिचित्त, योग, कम्मट्ठान, प्रधान, निमित्त, आरम्भण, लक्खण आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है । यहाँ पर 'ध्यान' समाधि प्रधान पारिभाषिक शब्द है। ध्यान का क्षेत्र विस्तृत है । यदि साधना को ध्यान से अलग कर दे तो ध्यानयोग का स्वरूप स्पष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि ध्यान और साधना का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है। इन दोनों को पृथक् नहीं किया जा सकता। ध्यान का शाब्दिक अर्थ है-चिन्तन करना । यहाँ 'ध्यान' से तात्पर्य है अकुशल कर्मों का दहन करना । अकुशल कर्मों के दहन के लिए शील, समाधि, प्रज्ञा एवं चार आर्य सत्य (१. दुःख, २. दुःख समुदय, ३. दुःख निरोध और ४. दुःख निरोध गामिनी, चतुर्थ आर्य सत्य के अन्तर्गत अष्टाङ्गिक साधना मार्ग) आदि साधनों का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि अकुशल कर्मों का मूल लोभ और मोह है। इन्हीं का दहन साधना और ध्यान से किया जाता है। किन्तु यहाँ अकुशल कर्मों से पाँच नीवरणों को लिया गया है । बौद्ध परम्परा में मुख्यतः ध्यान के दो भेद मिलते हैं-(१) आरम्भन उपनिज्झान (आलम्बन पर चिन्तन करने वाला) और (२) लक्खण उपनिज्झान (लक्ष्य पर ध्यान करने वाला)। आरम्भण उपज्झान चार रूपावचर और चार अरूपावचर के रूप में आठ प्रकार का माना जाता है और लक्खण उपज्झान के तीन भेद माने जाते हैं । चंचल चित्तवृत्ति को नियन्त्रित करने के लिए ध्यान साधना के अनेक रूप प्रतिपादन किये हैं जिसमें 'लोकोत्तर' ध्यान पद्धति चरम सीमा की द्योतक है। साधक रूपावचर और अरूपावचर ध्यान की प्रक्रिया से परिशुद्ध समाधि को प्राप्त करता है। लोकोत्तर ध्यान में उसका प्रहरण किया जाता है-दस संयोजन का प्रहरण होता है । बीज रूप में रहे हुए सभी संयोजन का लोकोत्तर ध्यान से नाश किया जाता है। तब साधक में क्रमशः निम्न अवस्थाएँ होती हैं-(१) स्रोतापन्न (स्रोतापत्ति), (२) सकुदागामि, (३) अनागामी और (४) अर्हन् । लोकोत्तर भूमि में चिन्ता की आठ अवस्थाओं में से प्रत्येक अवस्था में पाँच प्रकार के रूप ध्यान का अभ्यास किया जाता है। लोकोत्तर ध्यान में चित्त के चलीस प्रकार पर चिन्तन किया जाता है। सभी ध्यान प्रक्रियाओं में लोकोत्तर ध्यान प्रक्रिया श्रेष्ठ और परिशुद्ध मानी जाती है ।36 बौद्ध परम्परा में एक 'ध्यान सम्प्रदाय' भी है। ___ध्यानयोग का स्वरूप भारतीयेतर धर्मों में ___ इन भारतीय ध्यान-धाराओं के अतिरिक्त भारतीयेतर धर्मों में भी ध्यान का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। जैसे कि ताओ धर्म, कन्फ्युशियस धर्म. पारसी धर्म, यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म और सूफी धर्म-इन सभी धर्मों में ध्यानयोग का स्वरूप-विनय, नम्रता, सहिष्णुता, प्रेम, सरलता, इन्द्रियनिग्रह, संयम, दोष-निंदा-बुराई त्याग, आलस्य-प्रमाद त्याग, दया, दान, न्याय, नीति, अहिंसा, सत्य, 'भारतीय-वाङमय में ध्यानयोग : एक विश्लेषण' : डॉ० साध्वी प्रियदर्शना | ३३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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