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________________ - साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ निश्चयनय की दृष्टि से षट्कारक ध्यान का स्वरूप स्पष्ट कर रहे हैं-7 -- ध्याता को ध्यान कहा है। ध्यान ध्याता से अलग नहीं रह सकता और ध्यान, ध्याता एवं ध्येय के साधनों में कोई विकल्प नहीं हो सकता। इन तीनों का एकीकरण ही ध्यान है। ध्येय को ध्याता में ध्याया जाता है इसलिए वह कर्म और अधिकरण दोनों ही रूप में ध्यान ही कहा गया है। निश्च यनय से ये दोनों ध्यान से भिन्न नहीं हैं। अपने इष्ट ध्येय में स्थिर हुई बुद्धि दूसरे ज्ञान का स्पर्श नहीं करती इसलिए "ध्याति" को भी ध्यान कहा है। भाव-साधन की दृष्टि से भी “ध्याति" को ध्यान कहा है क्योंकि निश्चयनय की दृष्टि से शुद्धात्मा ही ध्यान है। जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है वह ध्यान है, जो ध्यान करता है वह ध्यान है, जिसमें ध्यान किया जाता है वह ध्यान है और ध्येय वस्तु में परम स्थिर बुद्धि का नाम भी ध्यान ही है। आत्मा अपने आत्मा को, अपने आत्मा में, अपने आत्मा के द्वारा, अपने आत्मा के लिए अपने हेतु से ध्याता है। इ नय की दृष्टि से यह कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण रूप षट् कारक में परिणत आत्मा ही ध्यान का स्वरूप है। प्रश्न होगा कि कैसे षट् कारक स्वरूप आत्मा ध्यान स्वरूप हो सकती है ? उतर में आचार्य का कथन है कि जो ध्याता है वह आत्मा (कर्ता), जिसको ध्याता है वह शुद्ध स्वरूप आत्मा (कर्म), जिसके द्वारा ध्याता है वह ध्यान परिणत आत्मा (करण), जिसके लिए ध्याता है वह शुद्ध स्वरूप के विकास प्रयोजन रूप आत्मा (सम्प्रदान), जिस हेतु से ध्याता है वह सम्यग्दर्शनादि हेतु आत्मा (अपादान), और जिसमें स्थित होकर अपने अविकसित शुद्ध स्वरूप को ध्याता है वह आधारभूत अन्तरात्मा (अधिकरण) है। इस तरह शुद्धनय की दृष्टि, जिसमें कर्ताकमादि षट् कारक से भिन्न नहीं, अपना एक आत्मा ही ध्यान के समय षट्कारकमय परिणत होता है । यही ध्यान का विशिष्ट लक्षण है। ऐसे सामान्य और विशेष ध्यान का स्वरूप अन्य दर्शनों में और मनोवैज्ञानिक ग्रन्थों में कम देखने को मिलता है । जिनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है--- ध्यानयोग का वैदिक स्वरूप कर्मयोग-भक्तियोग-ज्ञानयोग इन त्रिविध साधना पद्धतियों के अन्तर्गत ही मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग आदि का समावेश किया गया है। इन साधना पद्धतियों में सर्वाधिक प्रिय और प्रचलित प्रणाली योग की मानो जाती है। वैदिक युग के पश्चात दर्शनयुग में पतंजलि ने क्रमबद्ध योगशास्त्र का विवेचन किया। योग की सभी संकल्पनाएँ उपनिषदों में अनेक रूपों में दिखाई देती है। कालांतर में पातंजल योग के साथ-साथ मन्त्रादि चतुष्क योगों का विवेचन भी उपलब्ध होता है । पातंजल ने 'चित्तवृत्ति निरोध' को ही ध्येय सिद्ध किया है। उन्होंने 'योगशास्त्र' में क्रियायोग और अष्टांग योग का मार्ग स्पष्ट किया है । अष्टांगयोग के बहिरंग और अन्तरंग ऐसे दो भेद किये हैं । अन्तरंग योग में धारणा, ध्यान और समाधि का उल्लेख किया है। योगशास्त्र क्रमिक गति से साधक के विकास मार्ग में सहायक साधन है और ध्यान उसमें एक महत्त्वपूर्ण अंग है। बिना ध्यान के योग साधना की सिद्धि संभव नहीं। इसीलिये मनीषियों ने 'मन्त्रयोग' की साधना पद्धति में ध्यानयोग के लिए मन की एकाग्रता और तल्लीनता को प्राप्त करने के लिए अजपा जप अथवा सोऽहं को स्वीकार किया है। नाम स्मरण क प्रक्रिया से "स्थलध्यान" और "महाभावसमाधि' का प्रतिपादन किया है। मन्त्रयोग साधना पद्धति में। "स्थूलध्यान" की प्रक्रिया ही ध्यानयोग की प्रक्रिया है ।29 _ 'लययोग' की सभी क्रियायें कुण्डलिनी योग में पायी जाती हैं। इसमें स्थूल और सूक्ष्म क्रियाओं द्वारा कुण्डलिनी उत्थान, षट्चक्रभेदन, आकाश आदि व्योमपंचक तथा प्रकृति के सूक्ष्म रूप का चिन्तन RRCANARACH A 'भारतीय-वाङमय में ध्यानयोग : एक विश्लेषण' : डॉ० साध्वी प्रियदर्शना | ३३५
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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