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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ टीका में' 'समाधि' शब्द का अर्थ धर्मध्यान किया है । धर्मध्यान का प्रवेश द्वार भावना है । भावना नौका की तरह है । जैसे नौका किनारे पर ले जाती है वैसे भावनायोग से शुद्ध बनी आत्मा 'समाधियोग' (धर्मध्यान) द्वारा मन को एकाग्र करके भवसागर तैर जाती है । इसलिये शुद्ध परमात्मा का ध्यान ही ध्यानयोग है । दूसरे शब्दों में कहें तो ध्यानयोग के बल से काय के समस्त व्यापार के साथसाथ मन और वचन से परीषह - उपसर्गों को समभाव द्वारा सहन कर मोक्ष हेतु अनुष्ठान करना या विशिष्ट व्यापार ध्यानयोग है । " ध्यानयोग से शुभध्यान ( धर्मध्यान- शुवलध्यान) को ही प्रधानता दी जाती है । धर्मध्यान की चरम सीमा ही शुक्लध्यान का प्रारम्भ है । अतः इसमें षड् द्रव्य, नौ तत्त्व, छजीवनिकाय, गुण, पर्याय, कर्मस्वरूप एवं अन्य वीतरागकथित विषयों का चिन्तन किया जाता है। विशेष तौर से अरिहंत और सिद्धगुणों के स्वरूप का चिन्तन करना । ध्यानयोग का फलितार्य संबर और निर्जरा है तथा संवर निर्जरा का फल मोक्ष है । संवर का अर्थ है- आत्मा में आने वाले आस्रवद्वार को रोकना। यह दो प्रकार का है । 1 - द्रव्य और भाव । नये कर्मों को आते हुए रोकना द्रव्य संबर है और मन, वचन, काय की चेष्टाओं से आत्मा में आने वाले कर्मों को गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और उत्कृष्ट पंच चारित्र सम्पन्न साधक द्वारा कर्मों के क्षय करने पर आत्मा के विशुद्ध परिणाम को भाव संवर कहते हैं । भाव संवर के अनेक नाम हैं । जैसे सम्यक्त्व, देशव्रत, सर्वव्रत, कषायविजेता, मनोविजेता, केवली भगवान, योगनिरोधक | कर्मों का एक देश से नष्ट होना निर्जरा है अथवा पूर्व संचित कर्मों को बारह प्रकार के तप से (६ बाह्य और ६ आभ्यन्तर ) क्षीण एवं नीरस कर दिया जाता है, उसे निर्जरा कहते हैं । " उसके दो भेद हैं- (१) सविपाकनिर्जरा (साधारण निर्जरा, पाकजा निर्जरा, अकाम निर्जरा, स्वकालप्राप्त निर्जरा) और ( २ ) अविपाकनिर्जरा ( औपक्रमिकी निर्जरा, अपाकजानिर्जरा, सकामनिर्जरा ) । चारों गति के जीव सविपाकनिर्जरा सतत करते रहते हैं । जीव जिन कर्मों को भोगता है उससे कई गुणा अधिक वह नये कर्मों को बांधता है जिससे कर्मों का अन्त होता ही नहीं है । क्योंकि कर्म बन्ध के हेतुओं की प्रबलता रहती है । सामान्यतः सविपाक निर्जरा प्रत्येक जीव के प्रतिसमय होती रहती है, इसीलिए इसे साधारण, अकाम और स्वकालप्राप्त निर्जरा कहते हैं । निर्जरा का दूसरा भेद है अविपाक निर्जरा, जिसे अपाकजानिर्जरा, औपक्रमिकी निर्जरा तथा सकामनिर्जरा भी कहते हैं । यह निर्जरा ही मोक्ष का एकमात्र कारण है । वह बिना भोगे ही कर्मों को समाप्त कर देता है । अविपाक निर्जरा बारह प्रकार के तप से होती है । जैसे-जैसे उपशमभाव और तपाराधना में वृद्धि होती है वैसे-वैसे अविपाक निर्जरा में भी वृद्धि होती है । ज्ञानी पुरुष का तप निर्जरा का कारण है और अज्ञानी का कर्मबन्ध का । इसलिये अविपाक निर्जरा ही मोक्ष का मुख्य साधन है । ध्यान तप का ग्यारहवां अंग है । मोक्ष का मुख्य साधन ध्यान है । 14 ध्यानयोग का विशेष स्वरूप (लक्षण) मनुष्य ही अपने स्वरूप का परिज्ञान कर सकता है । वह अपने कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञाता होता है । स्व-स्वरूप का बोध ध्यान के आलंबन से ही सहज हो सकता है क्योंकि मन अनेक पर्यायों में (पदार्थों में) सतत परिभ्रमण करता रहता है और उसका परिज्ञान आत्मा को होता रहता है, वह ज्ञान जब अग्नि की स्थिर ज्वाला के समान एक ही विषय पर स्थिर होता है तब ध्यान कहलाता है 1 15 ३३२ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग www.jainelibratus
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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