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________________ H TERRITE साध्वीरनपुष्टावती अभिनन्दन ग्रन्थ SHRELESED FAR i nduiriniwalitivitititinctiniuminstitunitititiativimanitiativeswinimti निरोध', 'समत्व' अथवा 'उदासीन भाव से कर्म करने में कुशलता' या 'जीवात्मा परमात्मा का सुमेल' को योग कहा है। जैन परम्परा में 'योग' शब्द तीन अर्थों में व्यवहृत है, यथा -- (१) आस्रव (क्रिया, पापजनक क्रिया, व्यापार) (२) जोड़ना और (३) ध्यान । सरोवर में आने वाले जल-द्वार की तरह पापमार्ग को आस्रव संज्ञा दी जाती है। मन, वचन और काय के व्यापार को योग कहते हैं । इसे आस्रव या क्रिया भी कहते हैं। कुंदकुंदाचार्य ने आत्मा को तीन विषयों के साथ जोड़ने की प्रेरणा दी है । जैसे, (१) रागादि के परिहार में आत्मा को लगाना-~-आत्मा को आत्मा से जोड़कर रागादि भाव का परित्याग करना। (२) सम्पर्ण संकल्प-विकल्पों के अभाव में आत्मा को जोड़ना। (३) विपरीत अभिनिवेश का त्याग करके जैनागमों में कथित तत्त्वों में आत्मा को जोड़ना। आचार्य हरिभद्र ने मोक्ष से जोड़ने वाले समस्त धर्म व्यापार (धार्मिक क्रिया) को योग कहा है। यहाँ 'स्थान' (आसन), 'ऊर्ण' (उच्चारण), 'अर्थ' 'आलम्बन' और 'निरालम्बन' से सम्बद्ध धर्म व्यापार को योग की संज्ञा दी है। इन पाँच योग को क्रियायोग और ज्ञानयोग में समाविष्ट किया गया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने समस्त धर्म व्यापार से पाँच समिति, तीन गुप्ति अर्थात् अष्ट-प्रवचन माता की प्रवृत्ति को योग कहा है। योग का तीसरा अर्थ है-ध्यान । राग-द्वेष और मिथ्यात्व से रहित, वस्तु के यथार्थ स्वरूप को ग्रहण करने वाले और अन्य विषयों में संचार न करने वाले ज्ञान को ध्यान कहा है । 'जोग परिकाम्म' में योग के अनेक अर्थ हैं। जिसमें 'सम्बन्ध' भी एक अर्थ है-इसका इसके साथ योग है। 'योगस्थित' में 'योग' का अर्थ ध्यान है। 'झाण समत्थो' में ध्यान शब्द का अर्थ है एक ही विषय में चिन्ता का निरोध करना । यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि ध्यान शब्द से प्रशस्त ध्यान ही ग्राह्य है, नरक-तिर्यंचगति में ले जाने वाले अप्रशस्त ध्यान नहीं। ध्यान शब्द के लिए तप, समाधि, धीरोधः, स्वान्त निग्रह, अन्तः संलीनता, साम्यभाव, समरसीभाव, योग, सवीर्यध्यान आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। ___ध्यानयोग शब्द का अर्थ एवं परिभाषा आत्मा का शुद्ध स्वरूप ध्यान के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए ध्यानयोग का यथार्थ अर्थ जानना आवश्यक है। समस्त विकल्पों से रहित आत्मस्वरूप में मन को एकाग्र करना ही उत्तम ध्यान या शुभध्यान है । 'ध्यान' शब्द के साथ 'योग' को जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रशस्त ध्यान का चिन्तन करना ही ध्यानयोग है। मानसिक ज्ञान का किसी एक द्रव्य में अथवा पर्याय में स्थिर हो जाना ही ध्यान है । वह ध्यान दो प्रकार का है - शुभ (प्रशस्त) और अशुभ (अप्रशस्त)। मन-वचन-काय की विशिष्ट प्रवृत्ति (व्यापार) ही ध्यानयोग है। प्राचीन आगम साहित्य में एवं कुंदकुंदाचार्य के ग्रन्थों में ' 'भावना' और 'संवर' इन तीन शब्दों के साथ 'योग' शब्द को जोड़ा गया है । ये तीनों ही शब्द 'ध्यान' के पर्यायवाची हैं। 'समाधियोग', 'भावनायोग' और संवरयोग' का अर्थ है प्रशस्त या शुभ ध्यान । शुभ ध्यान से मन को एकाग्र किया जाता है, शुभ ध्यान आत्मस्वरूप का बोध कराता है। आत्मस्वरूप का ज्ञान होना ही 'संवर' है। संवर की क्रिया प्रारम्भ होने पर ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान की प्रक्रिया शुरू होती है। धर्मध्यान से आत्मध्यान और आत्मध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही श्रेष्ठज्ञान है। इसे ही श्रेष्ठ ध्यान कहते हैं। 'भारतीय-वाङमय में ध्यानयोग : एक विश्लेषण' : डॉ० साध्वी प्रियदर्शना | ३३१ www.jair Hiroenment
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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