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________________ साध्यासन पुत्र ललन्दन ग्रन्थ विराजमान देवों के मन्त्रों का क्रमिक जप करना शास्त्रविहित है । तन्त्रशास्त्रों में कुण्डलिनी को कामकला कहा गया है, इसीलिए इसका स्वरूप "ईं" से दिखाया जाता है । इस ईं बीज की बनावट में भी साढ़े तीन आवेष्टन होते हैं । इसकी आकृति में भी स्थिरता है । प्रत्येक भाषा की लिपि में इसका रूप प्रायः समान ही रहता है । यथा हिन्दी में ई, अंग्रेजी में 'E' और उर्दू में '5' इत्यादि । देवोपासना में ॐ का भी यही स्वरूप है, वहाँ भी साढ़े तीन आवर्त यथावद् गृहीत हैं । इसी क्रम में भक्तियोग के रूप में कवच, स्तोत्र, सहस्रनाम पाठ के भी पर्याप्त विधान हैं । और औषध सेवन से भी सहयोग प्राप्त किया जाता है, जिसका विस्तृत ज्ञान अन्य तद्विषयक ग्रन्थों में प्राप्त है । पुष्प - सूक्ति-सौरभ [] जैसे माता अपने बालक पर वात्सल्य वर्षा करती रहती है, तब अपने सभी दुःखों को भूल जाती है, बालक के संवर्द्धन-संरक्षण लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर देती है, वैसे ही विश्व वात्सल्य का साधक भी समाज, राष्ट्र या विश्व को बालक मानकर उसके दुःखों को स्वयं कष्ट सहकर भी दूर करे । में कुछ लो nirducatbnternational-. माता स्वयं भूखी रहकर भी तृप्त रहती है, नम्र भाव से सेवा करती है वैसे ही स्वयं भूखे-प्यासे रहकर समाज, राष्ट्र एवं विश्व के सभी प्राणियों के दुःख दूर करने का प्रयत्न करें । [ वात्सल्य के बहाने कहीं मोह, आसक्ति या राग न घुस जाय इसकी सावधानी रखना अति आवश्यक है । जैसे बच्चों को वात्सल्य देने वाली माता को अपने बच्चों के खा-पी लेने पर स्वयं भूखे रहने में भी आनन्द की अनुभूति होती है, वैसे ही वात्सल्ययुक्त पुरुष एवं महिला को परिवार एवं समाज से ऊपर उठकर समग्र मानव समाज के प्रति वात्सल्य लुटाने पर आनन्द की अनुभूति होती है । - पुष्प - सूक्ति-सौरभ ३२८ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग www.jainelibrary.Org
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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