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________________ साध्वारत्न पुष्पवता आभिनन्दन ग्रन्थ इतिहास के विद्यार्थियों को ज्ञात है कि जिनशासन को विकसित करने में साध्वियों का अपूर्व योगदान रहा है । साध्वियों ने जिनशासन की गरिमा में सदा चार चाँद लगाए हैं। उन्हीं गुण साध्वियों में महासती पुष्पवतीजी का नाम बिड़े गौरव के साथ लिया जा सकता है । वे गुणों की खान हैं । उनका सरल, उदार एवंम धुर स्वभाव लोकप्रियता का प्रमुख कारण है । आपकी कर्त्तव्यनिष्ठा और धर्म परायणता आपके अद्भुत व्यक्तित्व को निखारने में प्रमुख रही है । आप में जो सद्गुण हैं वे सद्गुण पूज्यनीया माता महासती प्रभावती जी और अध्यात्मयोगिनी सद्गुरुणी श्री सोहन कुंवर जी से विरासत में मिले हैं। उन सद्गुणों को आपने अधिकाधिक विकसित करने का प्रयास किया है । आप अनुशासन में रहकर संयम और चारित्र के नियमों का सम्यक् प्रकार से पालन कर रही हैं और जन-जन को प्रेरणा दे रही हैं । दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के मंगलमय अवसर पर मेरी शुभ कामनाएँ और भावनाएँ हैं आप दीर्घायु बनें और शारीरिक मानसिक बौद्धिक-अध्यात्मिक दृष्टि से स्वस्थ बनी रहकर जैन समाज का उत्कर्ष करती रहें । 卐 महासती श्री पुष्पवती जी की साधना का क्रमिक विकास - अ० प्र० मुनि कन्हैयालाल " कमल " सतीजी की संयम साधना के विकास क्रम की रूपरेखाउनकी सर्वप्रथम स्त्री पर्याय है, तदनन्तर श्रमणी पर्याय और साध्वी पर्याय है । स्त्री शब्द में तीन हलन्त व्यंजन है और एक दीर्घ स्वर | प्रथम हलन्त व्यंजन "स" सतोगुण का व्यंजक है । द्वितीय हलन्त व्यंजन "त" तमोगुण का व्यंजक है । तृतीय हलन्त व्यंजन "र" रजोगुण का व्यंजक है । एक दीर्घस्वर "ई" ईश्वरीयभाव / स्वामित्व का सूचक है । स्त्री जब सतोगुण धारण करती है तो वह उसमें पूर्ण हो जाती है, इसी प्रकार वह रजोगुण, तमोगुण में भी परिपूर्ण हो जाती है । सतोगुणी "सीता" जैसी अनेक स्त्रियाँ हुई है, और होंगी, तमोगुणी " चामुण्डा " चण्डिका आदि अनेक हुई है, और होंगी, रजोगुणी "अनंग सेना" आदि अनेक हुई है, और होंगी, सती पुष्पवती स्त्री पर्याय से जब "श्रमणी " पर्याय में आई तो उनने श्रमनीति स्वीकार की । स्वाध्याय ध्यान आदि में निरन्तर लगी रह कर संयमसाधना की सिद्धि के लिए उनने अथक श्रम किया । सदा सतोगुणी रहकर जो बाल्यकाल, युवाकाल और वृद्धत्व इन तीनों अवस्थाओं को निर्विघ्न पार कर लेती है वही "सती" होती है । चंचल तन, मन, वचन के स्थैर्य के लिए वह "साध्वी" पर्याय में आई । सात्विक चर्या से कर्मरज को ध्वस्त करती हुई और वीतराग प्ररूपित पथ का अनुसरण करती हुई ग्रामानुग्राम विहार कर रही है । शासनेश की अनवरत आराधना से उसे अवश्य सिद्धि प्राप्त होगी । महासती श्री पुष्पवतीजी की साधना का क्रमिक विकास | ७ www.jaint
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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