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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ KAD KOMEN MAKINCHES कुण्डलिनी के सम्बन्ध में भी यह तथ्य बिना किसी सन्देह के स्वीकार किया जाता है कि कुण्डलिनी स्वयंभू लिङ्ग में साढ़े तीन बार लिपट कर स्थित है । सुषुम्ना का मुख और इसका मुख पास पास है, अथवा सुषुम्ना का मुख इसके मुख में बन्द है । साधना के द्वारा सुषुम्ना का मुख खुल जाने पर कुण्डलिनी उसमें प्रवेश कर जाती है । इन उपर्युक्त कथनों में दोनों में ही पूर्णतया समानता है, मानों दोनों कथनों में भाषा भेद या शब्दों के भेद से एक ही बात कही गयी है । उदाहरणार्थ १. कन्द स्थान से मूलाधार ( ब्रह्मग्रन्थि) चक्र तक सुषुम्ना का प्रथम अंश है जिसमें प्राण प्रतिश्वास प्रश्वास में संचरित होते हैं, तथा कन्द और मूलाधार के बीच स्वयंभूलिङ्ग स्थित है, जिसमें कुण्डली लिपटी हुई है । २. सुषुम्ना का मुख खुलने पर कुण्डलिनी सुषुम्ना में प्रवेश करती है, तथा साधना द्वारा सुषुम्नासे कफ आदि अवरोधक पदार्थ हट जाने पर प्राण सुषुम्ना में प्रवेश करते हैं । मुख ३. केवलकुम्भक की साधना से क्रमशः ग्रन्थिभेदनपूर्वक प्राण सुषुम्ना में ऊपर को उठते हैं तथा एक बार सुषुम्ना में कुण्डलिनी का प्रवेश होने पर कुण्डलिनी सुषुम्ना में क्रमशः ऊपर की ओर उठती जाती है । ४. प्राण स्वयं शक्ति स्वरूप है तथा कुण्डलिनी शक्ति स्वरूप अथवा प्राणशक्ति रूप है । ५. सुषुम्ना में प्राणों के प्रवेश के अनन्तर केवलकुम्भक की सिद्धि हो जाना प्राण साधना की सर्वोतम सिद्धि है । इस साधना में उत्तरोत्तर पंचभूत धारणा (पृथिवीधारणा, जलधारणा, आग्नेयधारणा, वायवीधारणा, एवं आकाशधारणा ) के सिद्ध होने पर प्राण आज्ञा चक्र में प्रवेश करते हैं । यहाँ ध्यान की सिद्धि होती है, और उसके बाद प्राणों का जो ऊर्ध्वगमन है, वह इस साधना की अन्तिम समाधि सिद्धि है । यहीं योगी को कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है । जिसके बाद कुछ शेष नहीं रहता । दूसरी ओर कुण्डलिनी भी क्रमशः एक-एक चक्रों के क्रमश: जागरण और ग्रन्थिभेदन के साथ आज्ञाचक्र के बाद सहस्रार पद्म में पहुँचती है, जो इस क्रम में सर्वोच्च सिद्धि है । इससे मोक्ष का द्वार अनावृत हो जाता है । इसीलिए कुण्डलिनी सिद्धि को मोक्ष द्वार की कुंजी कहा है। इस प्रकार स्वरूप, साधना क्रम, सिद्धि क्रम और परिणाम (फल) के पूर्ण साम्य को देखते हुए इस निर्णय पर पहुँचना अनुचित न होगा कि कुण्डलिनी जागरण और प्राणों का सुषुम्ना में प्रविष्ट होकर उत्तरोत्तर ऊपर को पहुँचते हुए ब्रह्मरन्ध्र द्वारा ऊपर तक पहुँच जाना, जिसे केवलकुम्भक की सिद्धि कहते हैं, परस्पर भिन्न नहीं बल्कि अभिन्न हैं, एक हैं। इस एक ही स्थिति को दत्तात्रेय योगशास्त्र योगतत्त्वोपनिषद् आदि ग्रन्थों में केवलकुम्भक की सिद्धि के रूप में वर्णन किया है। इसके विपरीत तन्त्र से प्रभावित अथवा सिद्ध या नाथ परम्परा से प्रभावित ग्रन्थों में ( जहाँ शिव को योग का आदि उपदेष्टा कहा गया है) इस स्थिति को ही कुण्डलिनी जागरण के रूप में वर्णित किया गया है । स्मरणीय है कि दत्तात्रेय योगशास्त्र और योगतत्त्वोपनिषद् आदि में भगवान विष्णु अवतार दत्तात्रेय को दूसरे शब्दों में भगवान् विष्णु को योग के उपदेष्टा के रूप में निबद्ध किया गया है । जिन ग्रन्थों में केवलकुम्भक की साधना की विधि और क्रम वर्णित है, उनमें कुण्डलिनी जागरण की बात नहीं है । और जिनमें कुण्डलिनी जागरण की चर्चा हुई है उनमें केवलकुम्भक की चर्चा नहीं मिलती । प्राणशक्ति कुण्डलिनी एवं चक्र साधना : डॉ० म० म० ब्रह्ममित्र अवस्थी | ३११ www.
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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