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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ है, तब उसमें प्राणों का प्रवेश हो जाता है, केवलकुम्भक का यहीं से प्रारम्भ होता है, इस स्थित काही वर्णन कहीं ब्रह्मग्रन्थिभेदन के नाम से और कहीं कुण्डलिनी जागरण के नाम से किया गया है । योग परम्परा में प्रायः सभी सम्बद्ध ग्रन्थों में प्राप्त उपर्युक्त निर्विवाद वर्णन से निम्नलिखित तथ्य प्रगट होते हैं । १. सुषुम्ना नाड़ी का आरम्भ कन्द स्थान के मध्य से है और आज्ञाचक्र के ऊपर सहस्रार पद्म में मिलकर यह समाप्त होती है । २. कन्द स्थान मूलाधार चक्र से लगभग दो तीन अंगुल ऊपर और नाभि के पास अथवा नाभि के नीचे है । ३. सुषुम्ना नाड़ी में कन्द स्थान से निकलने के बाद मूलाधार चक्र के पास पहली ब्रह्मग्रन्थि, हृदय (अनाहत चक्र) के पास द्वितीय विष्णुग्रन्थि तथा भ्रूमध्य ( आज्ञाचक्र) से ऊपर तृतीय रुद्रग्रन्थि है, इसके बाद ब्रह्मनाड़ी सुषुम्ना सहस्रार पद्म या मस्तिष्क में मिल जाती है । ४. सुषुम्ना नाड़ी चेतना का केन्द्र स्थान है अर्थात् समस्त ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में चेतना का संचार सुषुम्ना द्वारा ही होता है । ५. सुषुम्ना में ही मूलाधार से आरम्भ होकर आज्ञा चक्र तक (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा ) इन छह चक्रों को स्थिति है । ये सभी चक्र चेतना के विशिष्ट केन्द्र हैं, जो प्रायः जागृत या क्रियाशील नहीं रहते, साधना द्वारा इन्हें क्रियाशील (जागृत) किया जाता है । ६. प्राण अथवा प्राणशक्ति का सुषुम्ना में निर्बाध प्रवाह अर्थात् ऊपर आज्ञाचक्र से भी ऊपर सहस्रारपद्म तक जाना योग साधना की उच्च परिणति है । ७. किन्तु प्राण इस नाड़ी में सामान्यतया प्रवाहित नहीं हो पाते । ईडा अथवा पिङ्गला से कन्द में सुषुम्ना में प्रवेश तो करते हैं, किन्तु प्रथमग्रन्थि अर्थात् ब्रह्मग्रन्थि, जिसे प्रथम अवरोध कह सकते हैं, के कफ आदि से बन्द रहने के कारण आगे बढ़ नहीं पाते, वहीं रुक जाते हैं । स्थान ८. सुषुम्ना नाड़ी तीन खण्डों में विभाजित है : (१) कन्द से मूलाधार चक्र या ब्रह्मग्रंथि तक (२) ब्रह्मग्रन्थि से विष्णुग्रन्थि तक तथा ( ३ ) विष्णुग्रन्थि से रुद्रग्रन्थि तक । ६. प्राणायाम साधना द्वारा प्राण अपान का मिलन होने पर और उससे अग्नि के अत्यन्त तीव्र होने पर अवरोधक (अर्गल) तत्त्व हट जाते हैं, और उसके बाद उसमें प्राणों का प्रवाह प्रारम्भ होता है । योग साधना के ग्रन्थों में एक बात और कही गयी है, प्राणायाम साधना के द्वारा सुषुम्ना में प्राणों का प्रवेश होने पर जब केवलकुम्भक प्रारम्भ होता है तब चित्त और प्राण क्रमशः ऊपर उठने लगते हैं, उस स्थिति में क्रमशः पृथिवा धारणा, जल धारणा, आग्नेय धारणा, वायवी धारणा, आकाश धारणा सम्पन्न की जाती है । इन धारणाओं में क्रमशः प्राण और चित्त मूलाधार आदि प्रत्येक चक्रों पर स्थित होते हैं । आज्ञा चक्र से ऊपर प्राण और चित्त के पहुँच कर स्थिर होने को ध्यान कहते हैं, और उससे भी ऊपर सहस्रार पद्म में प्राण और चित्त की स्थिति को समाधि कहते हैं । ये सभी क्रमशः उत्तरोत्तर स्थितियां हैं । ३१० | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग Mernational wwww.jainelibrary.org
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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