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________________ AMARATulanni.nahununi a साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ का नाम जया था। द्वितीय, मिथिला के उन्नीसवें तीर्थकर मल्लि भगवती थीं जिनकी माता का नाम प्रजावती था। तृतीय राजगृह के बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ हैं, जिनकी माता श्यामा नाम की थीं। चतुर्थ मिथिला के ही इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ हैं, जिनकी जननी विपुला नाम की थी। पंचम कुण्डपुर या कुण्डग्राम (वैशाली) के चौबीसवें जैन तीर्थंकर भगवान् महावीर हैं, जिनकी माता का नाम त्रिशला या प्रियकारिणी था। सचमुच, इन मातृ रत्नों से बिहार का गौरव सदा उद्ग्रीव रहेगा। जैन कथा-साहित्य के अध्येताओं से यह अविदित नहीं है कि धर्मसेवा और जनसेवा में जैन नारियों का अपना विशिष्ट स्थान है । भारतीय इतिहास से भी यह बात स्पष्ट है कि पुराकालीन नारियाँ विदुषी, धर्मपरायण एवं कर्त्तव्यनिष्ठ होती थी । तत्कालीन नारियों के 'अबला' की संज्ञा प्राप्त करने का उदाहरण कदाचित् ही मिलता है। निर्भय, वीर तथा अपने समाज और सतीत्व के संरक्षण में सावधान एवं सदा सतर्क और सतत् प्रबुद्ध नारियों के अनेक उदाहरण पुराणों में मिलते हैं । यह सर्वविदित है कि नारियों में निसर्गतः सेवा करने की अपूर्व क्षमता होती है। कथा-ग्रन्थों में ऐसे कितने ही दिव्य भव्य उदाहरण भरे-पड़े हैं कि नारियों ने अपने पातिव्रत्य और गृहिणीत्व की मर्यादा अक्षुण्ण रखते हुए राज्य के संरक्षण में अद्भुत कार्य किया है । साथ ही, अवसर आ पड़ने पर युद्ध में भी सम्मिलित होकर शत्रुओं के दाँत खट्टे किये हैं। वैदिक परम्परा में भी मैत्रेयी, कात्यायनी, गार्गी, गौतमी जैसी महीयसी महिलाओं के दिव्य दर्शन होते हैं। इनके विमल आचरण और विस्मयजनक वैदुष्य की बात आज भी जन मानस को प्रेरित करती है। श्रमण-संस्कृति के काल में नारियों का अभूतपूर्व उत्थान हुआ, जिसका मूल कारण है भगवान महावीर का नारियों के प्रति उदार दृष्टिकोण । इसी का फल है कि श्रमण-संस्कृति में अनेकानेक नारियों में ने आत्म साधना एवं धर्म साधना के साथ ही जन-जागरण के मार्ग में सदैव अग्रगति होने का प्रयास किया। है और इसमें वे सफल भी हुई हैं। प्रख्यात जैनाचार्य जिनसेन (१११० ई०) के 'आदि पुराण' ग्रन्थ से यह पता चलता है कि उस समय नारियों का सहयोग सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक-सभी । क्षेत्रों में प्राप्त था। जैनकाल में नारी केवल भोगैषणा की पूर्ति का साधन नहीं थी, वरन् उसे भी स्वतन्त्र रूप से विकसित और पल्लवित होने की समुचित सुविधाएँ प्राप्त थीं। कन्या, गृहिणी, जननी और विधवा पर्थ का सदुपयोग करने के साथ ही परार्थ में भी तत्पर थीं । आचार्य जिनसेन के अनुसार जैन नारियाँ इसे अपना मूलमन्त्र मानती थीं : __तदेव ननु पाण्डित्यं यत्संसारात्समुद्धरेत् । अर्थात् संसार से उद्धार पा लेना ही पण्डिताई या चतुराई है । वस्तुतः, जैनकालीन नारिय आदर्श की कोटि में परिगणनीय थीं। [लेख में वर्णित अनेक घटनाएँ व तथ्य श्वेताम्बर परम्परा में प्रसिद्ध तथ्यों से भिन्न हैं, विद्वा लेखक उनके सन्दर्भ देते तो पाठक की ज्ञान-पिपासा तृप्त हो जाती । समाधान हेतु जिज्ञासु लेखक सम्पर्क कर सकते हैं। पता-श्रीरंजन सूरिदेव, पी० एन० सिन्हा कॉलोनी भिखना पहाड़ी, पटना ६, -सम्पादक २०६-ठछखण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियां का योगदान www.jainelio23
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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