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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ । कलकतनावकककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककृतमन्नातक आशीर्वचन absessesbsesbsessedesbsedesesesi.sexdesibeesbseseseseseseksesesesesesessessessessedesisesesasebedestedesesledeobdesbsessledesesesesisesbsesise, --आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषिजी म. श्रमणसंघ स्थानकवासी जैन समाज का एक प्रारम्भ से ही मेरी रुचि ज्ञान--साधना की ओर विशिष्ट संघ है। इस संघ में जहाँ अनेकों मूर्धन्य रही है। “पढमं नाणं तओ दया" के सिद्धान्त के मनीषीगण हैं, अनेकों तत्त्व-चिन्तक, सन्तगण हैं, अनुसार पहले ज्ञान आवश्यक है क्योंकि “नाणं अनेकों प्रखर प्रवक्ता मुनिराज हैं तो अनेक प्रताप- पयासयं" ज्ञान प्रकाशक है। बिना ज्ञान के क्रिया पूर्ण प्रतिभा की धनी साध्वियाँ भी है। जिनमें सम्यक् नहीं हो सकती । अतः श्रमण एवं श्रमणियों की गहराई है और विरोधी विचारों का को पहले ज्ञान-साधना में आगे बढ़ना चाहिए। मुझे समन्वय करने की अद्भुत क्षमता है। अनेकों प्रव- उस समय यह जानकार हादिक आबाद हआ कि चन विशारदा साध्वियाँ भी है। जिनकी वाणी में महासती पुष्पवतीजी ने संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी जादू है । जब वे बोलती हैं तब ऐसा प्रतीत होता के उच्चतम ग्रन्थों का अध्ययन किया है। मैंने है कि सरस्वती पुत्रियाँ बोल रही हैं । उन विद्वान परीक्षा की दृष्टि से अनेक प्रश्न किये। सन्तोषप्रद सन्त और सतियों पर जो जिनशासन की प्रबल उत्तर सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई । मुझे यह जानकर प्रभावना करती है, उन पर मुझे सात्विक गौरव है। उस समय भारी आश्चर्य हुआ कि राजस्थान; जो परम विदुषी साध्वियों में महासती पुष्पवतीजी एक रूढि चुस्त क्षेत्र है, जहाँ का महिला वर्ग अध्यका नाम आदर के साथ लिया जा सकता है। वे यन की दृष्टि से बहुत ही पिछड़ा हुआ है, वहाँ पर एक प्रतिभा सम्पन्न साध्वी हैं । मेरा उनका परिचय महासतीजी ने संस्कृत-प्राकृत की उच्चतम परीक्षायें जब श्रमणसंघ नहीं बना था, उसके पूर्व का है । मैं समुत्तीर्ण की हैं। उस समय पाँच सम्प्रदाय का आचार्य था। मेरी उसके पश्चात सन् १९५३ में सोजत मंत्रिमंडल हार्दिक इच्छा थी कि सम्पूर्ण स्थानकवासी समाज की बैठक में पुनः महासतीजी को देखने का अवसर एक बने । इसी भव्य भावना से उत्प्रेरित होकर मैं मिला । मैं उस समय श्रमणसंघ का प्रधानमंत्री महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज के पास था। प्रधानमंत्री होने के नाते मेरा उत्तरदायित्व सन् १९५० में पहुँचा। उस समय साध्वीरत्न महा- था कि मैं सभी सन्त-सतियों से पूछ्रे कि उनका सती श्री पुष्पवतीजी भी महास्थविरजी म० की संयमी जीवन प्रगति पर तो है न ? ज्ञान-ध्यान की सेवा में ही विराज रही थी। आराधना सम्यक् प्रकार से तो हो रही है न ? मैंने २ | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन COM Mearch da.
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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