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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ...... iiiiiiiiiHERRRRRRRRRR RRRA मनसा-वाचा-कर्मणा वह पति के गृह-द्वार को अपना मानकर उस परिवार के सुख-दुःख की समभागी बन जाती है। उसका अपना सारा सुख-दुःख उस परिवार से जुड़ जाता है। पति और उसका परिवार ही उसके लिए आधारभूत होता है जिसे वह प्राण-प्रण से स्वीकारती है। नारी पति के साथ छाया रूप हो जाती है। मछली और पानी का जो सम्बन्ध होता है वही सम्बन्ध पति-पत्नी का होता है। नारी पत्नीधर्म को स्वीकार कर धर्ममार्ग पर आगे बढ़ती हुई पति की भी धर्माराधना में सहयोगी बनती है। इसलिए नीतिकार ने कहा है-'भार्या-धर्मानुकूला।' अतीत के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे हमें, जिनमें नारी का 'धर्मानुकूला-भार्या' रूप साकार हो जीवन्त प्रतीक बन चुका था। सती सीता, महारानी दमयन्ती, महारानी द्रौपदी, आदि अनेक राजवधुएँ पति-सेवा में ही अपना सुख मानकर उनके साथ दुःख उठाने को भी तत्पर बनीं। महासती मदनरेखा का उदाहरण तो वस्तुतः नारी के दिव्य पत्नीधर्म को मूर्तिमन्त/जीवन्त कर देता है। __ अपने ही जेठ मणिरथ द्वारा अपने पति युगबाहु पर प्राणघातक वार के पश्चात जब वह देखती है कि उसका पति जीवित नहीं रह सकता है तो अपनी असहाय अवस्था का विचार नहीं करते हुए वह युगबाहु को धर्म का शरणा देकर, क्रोध-द्वेष भाव से हटाकर शुभ भावों में स्थिर कर उसकी गति को सुधार देती है। नारी धर्मसहायिका होती है, इस उक्ति का यह जीवन्त उदाहरण है। इसी प्रकार बौद्धधर्मानुयायी और पाप-पंक से लिप्त मगध सम्राट महाराजा श्रेणिक को महारानी चेलना ने सद्धर्म/वीतराग-वाणी पर उन्हें स्थिर कर, उनकी सम्यक्त्व प्राप्ति में सहायक बनकर आदर्श पत्नीधर्म का निर्वाह किया था। सती सुभद्रा ने संकटों की चिन्ता न करते हुए अपने पति और पूरे परिवार की वीतराग-वाणी पर श्रद्धा जगाकर श्रमण-धर्म का उपासक बना दिया। ऐसे अनेक उदाहरण हम देख सकते हैं जिनमें नारी ने अपने धर्म-पत्नी रूप को गरिमा से मंडित कर उसे भव्यता प्रदान की है। धर्मपथानुगामी नारी इन्द्रिय-सुखोपभोग के लिए अनेक नारियों ने अपने-अपने पति के साथ आत्म-बलिदान किया है। किन्तु धर्मपथानुगामी तथा शीलधर्म की रक्षा के खातिर भी नारी ने अपने पति के प्रति जो अनन्य श्रद्धा भाव है उसे कायम रखा है। नारी का उदात्त रूप-एक दृष्टि : मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय' | २४६ मम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म www.ia
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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