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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ITTE उत्तर-पर्याय रूप कार्य की उत्पत्ति होती है न कि कार्य के विनाश में कारण की उत्पत्ति का नियम है। प्रागभाव उपादान है और प्रध्वंसाभाव उपादेय है। प्रागभाव का विनाश करता हआ प्रध्वंस उत्पन्न होता है। घट-पर्याय कपाल-पर्याय का प्रागभाव है ।कपाल-पर्याय घट-पर्याय का प्रध्वंस है। प्रागभाव पूर्वक्षणवर्ती कारणरूप तथा प्रध्वंस उत्तरक्षणवर्ती कार्यरूप है। वस्तुतः दोनों अभाव कथंचित् भावरूप हैं। अतएव उक्त स्थल में दो अभावों में सम्बन्ध मानने का प्रसंग ही नहीं है। व्यवहारनय की अपेक्षा से मृदादि स्वद्रव्य ही घटोत्तर-काल में घट-प्रध्वंस कहलाता है, यह स्पष्ट है। । प्रत्येक पदार्थ सद सदात्मक है, इसमें विवाद नहीं है। पर अभावांश भी पदार्थ का धर्म होने से यथासम्भव भाव-ग्राहक प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से गृहीत होता है। जैसा कि कहा है-जिस मानव को घटयुक्त भूतल का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है उसे ही घट के अभाव में घटाभाव का भी प्रत्यक्ष आदि से ज्ञान होता है। यह कोई नियम नहीं है कि भावात्मक प्रमेय के ग्राहक-प्रमाण को भावरूप और अभावात्मक प्रमेय के ग्राहक-प्रमाण को अभावात्मक ही होना पड़ेगा अभाव के द्वारा भी भाव का ज्ञान सम्भव है। जैसे मेघाच्छन्न आकाश-मण्डल में वृष्टि के अभाव से अनन्त आकाश में वायु की सत्ता रूप भाव पदार्थ प्रतीत होता है। इसी प्रकार भाव के द्वारा भी अभाव का ज्ञान होता है । अग्नि की सत्ता के ज्ञान का ज्ञान होता है। अभाव प्रमाण का खण्डन इस रूप में हुआ है -जब भावाभावात्मक अखण्ड पदार्थ प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा गृहीत हो जाता है, तो फिर अभावांश के ग्रहण के लिये पृथक् अभाव नामक प्रमाण मानने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है । अभाव को यदि न माना जाय तो, प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव आदि समस्त-व्यवहार विनष्ट हो जायेंगे । क्योंकि पदार्थ की स्थिति अभाव के अधीन है। सारपूर्ण भाषा में यही कहा जा सकता है कि दूध में दही का अभाव प्रागभाव है, दही में दूध का अभाव प्रध्वंसाभाव है। घट में पट का अभाव अन्योन्याभाव है और खर विषाण का अभाव अत्यन्ताभाव है। पर अभाव को भाव-स्वभाव बिना माने ये चारों ही अभाव नहीं घट सकते । अतएव अभाव प्रकारान्तर से भाव रूप ही है। अभाव सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । किन्तु वह भी वस्तु तत्त्व का उसी तरह एक धर्म है, जिस प्रकार भावांश । अर्थात् प्रत्येक पदार्थ भावाभावात्मक है और इसलिये अनुपलब्धि नामक स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है । अभाव विषयक वह ज्ञान ही अभाव प्रमाण सिद्ध हुआ और वह ज्ञान इन्द्रियजन्य होने के कारण प्रत्यक्ष-प्रमाण के अन्तर्गत है । भावांश ज्ञान के समान अभावांश ज्ञान कराने में चक्षु इन्द्रिय की प्रवृत्ति अविरुद्ध है। अभाव प्रमाण-एक चिन्तन : रमेश मुनि शास्त्री | १७३
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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