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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ BOLI १. प्रागभाव । ३. अत्यन्ताभाव। २. प्रध्वंसाभाव। ४. अन्योन्याभाव । यह ध्र व सत्य है कि द्रव्य की न उत्पत्ति होती है और न उसका विनाश होता है । किन्तु पर्याय की उत्पत्ति होती है और उसी का विनाश होता है। प्रत्येक द्रव्य अपने द्रव्यरूप से कारण होता है और वही पर्याय रूप से कार्य होता है। जो पर्याय उत्पन्न होने जा रहा है वह उत्पत्ति के पहले पर्याय रूप में नहीं है। अतएव उसका जो अभाव है, वह प्रागभाव है । घट-पर्याय जब तक उत्पन्न नहीं हुआ, तब तक वह सत् नहीं है और जिस मिट्टी द्रव्य से वह उत्पन्न होने वाला है, उसे घट का प्रागभाव कहा जाता है। द्रव्य का कभी भी विनाश नहीं होता है । पर्याय का विनाश होता है । अतएव कारण-पर्याय का विनाश कार्य-पर्याय रूप होता है। कोई भी विनाश सर्वथा अभाव रूप या तुच्छ न होकर उत्तर-पर्याय रूप होता है । घट पर्याय विनष्ट होकर कपाल-पर्याय बनता है। अतएव घट-विनाश कपाल रूप है जिसे प्रध्वंसाभाव कहा जाता है। __ एक पर्याय का दूसरे पर्याय में जो अभाव है, वह इतरेतराभाव है, जिसे अन्यापोह भी कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभाव से निश्चित है । एक का स्वभाव दूसरे का नहीं होता । एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में जो त्रैकालिक अभाव है, वह अत्यन्ताभाव है। इस अभाव प्रमेय को लेकर दार्शनिकों में विभिन्न प्रकार के विचार प्रवृत्त हैं। कोई दार्शनिक अभाव को मानते ही नहीं है, कोई उसे कल्पित मानते हैं, कोई उसे स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं, कोई उसे अभावात्मक मानते हैं और कोई उसे भाव-स्वरूप मानते हैं। पुनः इस अभाव-प्रमाण के विषय में कई अभिमत हैं । प्रमाण, प्रमेय-साधक होता है, इसमें कोई वाद-विवाद नहीं है। फिर भी सत्य की कसौटी सब की एक नहीं है । एक ही पदार्थ के निर्णय के लिये दार्शनिकों द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रमाण माने गए हैं। यदि यह कहा जाय कि अभाव निःस्वरूप होने के कारण असिद्ध है। तो यह आशंका अनुचित है। क्योंकि जैन दर्शन के अभिमतानुसार अभाव-पदार्थ भाव-स्वभाव वाला है । अतएव वह निःस्वरूप नहीं है। यह भी शंका नहीं करनी चाहिये कि भाव-स्वभाव वाले प्रागभावादि अभाव की सिद्धि कैसे हो सकती है ? जैन दार्शनिकों के अभिमत के अनुसार ऋजुसूत्रनय और प्रमाण के द्वारा उन (प्रागभाव प्रध्वंसाभाव आदि) की सिद्धि हो जाती है। जैसा कि कहा है-नय प्रमाणादिति और ऋजुसूत्रनयापर्णादिति । वर्तमान क्षण के पर्यायमात्र की प्रधानता से पदार्थ का कथन करना "ऋजुसूत्र' है । इस नय की अपेक्षा से प्रागभाव घटादिकार्य के अव्यवहित पूर्व में रहने वाला उपादान-परिणाम अर्थात् मृत्पिण्ड स्वरूप ही है, और व्यवहारनय की अपेक्षा से मृदादि द्रव्य ही घट-प्रागभाव है। प्रध्वंसाभाव की सिद्धि भी ऋजुसूत्र-नय की अपेक्षा से होती है । प्रध्वंसाभाव स्थल में उपादेय क्षण (घटोत्पत्ति स्थिति क्षण) ही उपादान (मृत्पिड रूप कार) का प्रध्वंसाभाव है । उपादेय क्षण को ही उपादान का प्रध्वंसक्षण माने जाने पर यह आशंका हो सकती है कि उपादेय के उत्तरोत्तर क्षण में प्रध्वंसाभाव का अभाव होने से घट आदि की पूनरुत्पत्ति की आपत्ति होगी। पर इस प्रकार की आशंका उचित नहीं है। क्योंकि कारण में कार्य का नाशकत्व नहीं है। उपादान कारण का विनाश होने पर १७२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य www.jaineli
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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