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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ लगा पाता है । यह विज्ञान व्यक्ति को वासनाओं के, आशा तृष्णा के गर्त में गिराता है, तो समष्टि को तृतीय महायुद्ध के कगार पर ले जाकर खड़ा भी कर देता है । किसी ऋषि ने कभी कहा था अधर्मेणैधते लोकस्ततो भद्राणि पश्यति । ततः सपत्नान् जयति, समूलस्तु विनश्यति ॥ अर्थात् अधर्म की सहायता से मनुष्य ऐश्वर्य-लाभ करता है, अपने मनोरथ सिद्ध करता है, अपने शत्रुओं को जीतता है परन्तु अन्त में समूल ही नष्ट हो जाता है । आज यदि हम इस श्लोक में 'अधर्म' के स्थान पर 'विज्ञान' शब्द का प्रयोग कर दें, तो श्लोक बनेगा सकता है । निष्कर्ष विज्ञाने नैधते लोकस्ततो भद्राणि पश्यति । ततः सपत्नान् जयति, समूलस्तु विनश्यति ॥ तात्पर्य स्पष्ट है कि विज्ञान के द्वारा मनुष्य भौतिक सामग्री और तज्जन्य-सुख प्राप्त कर सकता है, शत्रु पर विजय भी प्राप्त कर सकता है, लेकिन अन्तिम हश्र के लिए भी आज उसे तैयार रहना है । यह अन्तिम हश्र मनुष्य जाति का समुल सर्वनाश - आज सर्वविदित सुपरिचित तथ्य है । अस्तु, विज्ञान सिर्फ एक उपलब्धि है । इस उपलब्धि (योग) का क्षेम, इस उपलब्धि का संविभाग और इस उपलब्धि में मन को संतुलित करने की कला तो 'धर्म' ही सिखाता है । विज्ञान के कारण बढ़े हुए वैर-विरोध धर्म से ही समाप्त हो सकते हैं । 2 सम्प्रदायों के दीवट ( दीपाधार) चाहे कितने भी हों, लेकिन धर्म की ज्योति एकसी होती है, वह शाश्वत तत्त्व है । वैज्ञानिक युग में बल्ब के रंग अलग-अलग होने से ज्योति के रंग भी तदनुसार परिवर्तित प्रतीत होते हैं । यही सम्प्रदायों के जन्म का इतिहास है । और यह विविधता ज्योति की अपूर्णता या विविधता नहीं कहला सकती । लेकिन वैज्ञानिक जगत में दृष्टिक्षेप करने पर प्रतीत होता है कि विज्ञान तो सदा-सर्वदा के लिए अपूर्ण था, है और रहेगा । इसी कारण, गैलीलियो ने कहा कि पृथ्वी घूमती है तो आइन्स्टीन ने कहा कि पृथ्वी स्थिर है । इस तरह एक दूसरे के निर्णयों को काटते रहने के कारण वहां भी सम्प्रदायों का जन्म होता है । क्योंकि विज्ञान अपूर्ण है, अतः यह भेद - रेखा कभी मिटने वाली नहीं है । विज्ञान - ज्योति कभी पूर्ण होने वाली नहीं है । इसलिए विज्ञान यदि धर्म-ज्योति के प्रकाश में चले, तो विश्व के लिए वरदान सिद्ध हो ये 'कुछ भेद होने पर भी हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि जिस प्रकार भौतिक विज्ञान से प्राप्त लाभ देश-काल-जाति- देश - भाषा - आचार आदि की सीमाओं से परे हैं, इसी प्रकार धर्म से प्राप्त लाभ भी इन सब सीमाओं से परे हैं - इस दृष्टि से दोनों ही समष्टि-परिव्याप्त हैं । यदि एक-दूसरे में भी परिव्याप्त हो जाएँ, तो दोनों की सहायता से धरती पर ही स्वर्ग उतर आए। जीव की जिजीविषा को सुख पूर्वक विकास का अवसर मिले। यही तो धर्म का आध्यात्मिक उत्कर्ष है और विज्ञान का भौतिक उत्कर्ष । सौन्दर्यात्मक और आध्यात्मिक उत्कर्ष पूर्ण मानव के निर्माण में योग देता है । 1. नहि वेरेन वेरानि, सम्मति न कदाचन । अवेरेन च सम्मति, एस धम्मो सनन्तनो || १६० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य -धम्मपद www.jaine
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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