SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ और आठ अध्यायों द्वारा श्रावक धर्म का सामान्य वर्णन, अष्टमूल गुण तथा ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है । व्रत प्रतिमा के भीतर बारह व्रतों के अतिरिक्त श्रावक धर्म की दिनचर्या भी बतलाई गई है । अन्तिम अध्याय के ११० श्लोकों में समाधिमरण का विस्तार से वर्णन हुआ है । रचना शैली काव्यात्मक है । ग्रंथ पर कर्ता की स्वोपज्ञ टीका उपलब्ध है, जिसमें उसकी समाप्ति का समय वि० सं० १२९६ या ई० सन् १२३६ उल्लिखित है । २. प्रमेय रत्नाकर - यह ग्रंथ स्याद्वाद विद्या की प्रतिष्ठापना करता है | 2 ३. अध्यात्म रहस्य – इसमें ७२ संस्कृत श्लोकों द्वारा आत्मशुद्धि और आत्म-दर्शन एवं अनुभूति का योग की भूमिका पर प्ररूपण किया गया है। आशाधर ने अपनी अनगार धर्मामृत की टीका की प्रशस्ति में इस ग्रंथ का उल्लेख किया है । इस ग्रन्थ की एक प्राचीन प्रति की अन्तिम पुष्पिका में इसे धर्मामृत का योगीद्दीपन नामक अठारहवाँ अध्याय कहा है । इससे प्रतीत होता है कि इस ग्रंथ का दूसरा नाम योगीद्दोपन भी है और इसे कर्त्ता ने अपने धर्मामृत के अन्तिम उपसंहारात्मक अठारहवें अध्याय के रूप में लिखा था । स्वयं कर्त्ता के शब्दों में उन्होंने अपने पिता के आदेश से आरब्ध योगियों के लिए इसकी रचना की थी | 3 इनकी अन्य रचनाओं में, ४. धर्मामृत मूल, ५. ज्ञान दीपिका, ६. भव्य कुमुद चंद्रिका - धर्मामृत पर लिखी टीका, ७. मूलाराधना टीका, ८. आराधनासार, ६. नित्यमहोद्योत, १०. रत्नत्रय विधान, ११. भरतेश्वरभ्युदय - इस महाकाव्य में भरत के ऐश्वर्य का वर्णन है । इसे सिद्धचक्र भी कहते हैं। क्योंकि इसके प्रत्येक सर्ग के अन्त में सिद्धि पद आया है । १२. राजमति विप्रलम्भ - खण्ड काव्य है । १३. इष्टो - पदेश टीका, १४. अमरकोश, १५. क्रिया कलाप, १६ काव्यालंकार, १७. सहस्र नाम स्तवनटीका, १८. जिनयज्ञकल्पसटीक इसका दूसरा नाम प्रतिष्ठासारोद्धार धर्मामृत का एक अंग है । १९. त्रिषष्टि, २०. अष्टांग हृदयोद्योतिनी टीका - वाग्भट के आयुर्वेद ग्रन्थ अष्टांगहृदयी की टीका और २१. भूपाल चतुविशति टीका 14 (१५) श्रीचन्द्र- ये धारा के निवासी थे । लाड़ बागड़ संघ और बलात्कार गण के आचार्य थे । इनके द्वारा रचित ग्रन्थ इस प्रकार हैं : (१) रविषेण कृत पद्म चरित पर टिप्पण, (२) पुराणसार, (३) पुष्पदंत के महापुराण पर टिप्पण, (४) शिवकोटि की भगवती आराधना पर टिप्पण | अपने ग्रन्थों की रचना इन्होंने विक्रम की ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्ध (वि० सं० २०८० एवं १०६७) में की । 1. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० 114 2. वीरवाणी, वर्ष 18, अंक 13 पृ० 21 3. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान पृ० 122 4. (अ) वीरवाणी वर्ष 18 अंक 13 (ब) जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास पृ० 396 विस्तृत परिचय के लिए देखें - "जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग 2 – पं० परमानन्द शास्त्री, पृ० 408 से आगे । १४४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य www.jainelit
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy