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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जो जसो अप्पा मुहु, इहु सिद्धंतह सारु । इउ जाणे विण जोइयहो छंडहु मायाचारु ।। 83 जो परमप्पा सो हिउं जो हउं सो परमप्पु । इउ जाणे विणु जोइया अण्णु म करहु वियप्पु || 84 एहउ अप्पसहाउ मुगि लहु पावहि भवती ॥ सुद्धु सचेयण बुद्धु जिणु केवलणाणसहाउ । सो अप्पा अणुदिणु मुणहु जइ चाहहु सिव लाहु उपनिषद् आदि में कहा गया है कि ब्रह्म 'विज्ञानघन' है, 7 उसी प्रकार मुक्ति में मात्र 'ज्ञानघनता' ही अवशिष्ट रहती है - ऐसा जैन मत है 188 संक्षेप में, वेदान्त (शांकर) तथा जैनदर्शन - दोनों में अन्य मतभेद होने पर भी इस बात में ऐकमत्य है कि अद्वैतानुभूति ही मोक्षप्राप्ति का एकमात्र साधन है, और उस अद्वैतानुभूति के लिए परमार्थदृष्टि का अवलम्बन करना आवश्यक है । A पुष्प - सूक्ति-कलियाँ धर्म वह है, जो धारण करे । मानव को, समाज को, राष्ट्र को और समस्त संसार को, जो अपनी शक्ति, मर्यादा व संविधि से धारण- रक्षण व संपोषण करने में समर्थ है, वही वास्तव में धर्म है । धर्म वह है, जिसे जीव मात्र धारण कर सके । वह धर्म जल की तरह सब के लिए समान उपयोगी है, उसमें किसी भी प्रकार के भेद की कल्पना नहीं की जा सकती। जो भी उसे धारण करे, वही सुख व शांति का लाभ कर सके, उसी का नाम है धर्म । 83. योगसार ( योगीन्दु ) - 21, 85. योगसार - 24 84. 86. योगसार - 22 योगसार - 26 87. बृहदा. उप. 2/4/12 88. समयसार - 15 पर आत्मख्याति, समयसार कलश-13, 244-45 0 'तत्त्वमसि वाक्य' : डॉ० दामोदर शास्त्री | ८ www.jan
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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