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________________ साध्वीरत्नपुष्वती अभिनन्दन ग्रन्थ) जैनदर्शन में भी परमतत्त्व 'सच्चिदानन्द' रूप है। 73 संसारी जीव सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर, आत्मानात्मविवेक के अनन्तर, रागादि कर्म का क्षय कर सर्वज्ञता तथा सच्चिदानन्दरूपता क्रमशः प्राप्त कर लेता है। उपर्युक्त दृष्टियों से आ. शंकर तथा जैन दृष्टि में पर्याप्त समानता दृष्टिगोचर होती है । तत्त्वमसि वाक्य वेदान्तदर्शन में 'तत्त्वमसि, 76 'अहं ब्रह्म अस्मि'77 'यत्र नान्यत्पश्यति,78 न तु तद् द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद् विभक्त यत्पश्येद् 79 ---इत्यादि उपनिषद्-वाक्यों के आधार पर परमात्मा व जीवात्मा की एकरूपता को स्वीकारा गया है। ___ 'तत्त्वमसि' महावाक्य का अर्थ है-वह तू है। 'वह' से तात्पर्य है-परोक्ष व सर्वज्ञत्व आदि गुणों से विशिष्ट चैतन्य । तत् से तात्पर्य है-प्रत्यक्ष व अल्पज्ञत्व आदि गुणों से विशिष्ट चैतन्य । अर्थात् शुद्ध चैतन्य तथा अज्ञानोपहत चैतन्य-दोनों एकरूप हैं। 'तत्त्वमसि' वाक्य के श्रवण-मननादि से जीव को अपने स्वरूप का भान होता है और जीव ब्रह्मरूपता प्राप्त कर लेता है । जैनदर्शन के अनुसार मुक्त आत्मा स्वशुद्धात्मरूप परब्रह्म से विभक्त होकर नहीं रहती। वास्तव में शुद्ध निश्चयनय के विषय परमात्मतत्त्व की भावना व ध्यान के सोपान पर चढ़ते-चढ़ते, उपासक ही उपास्यरूपता उसी प्रकार प्राप्य कर लेता है जिस प्रकार दीपक की बत्ती दीपक की लौ के रूप में, तथा वृक्ष की लकड़ी परस्पर रगड़ खाकर अग्नि के रूप में प्रकट हो जाती है । जैनदर्शन साधक को बार-बार यह परामर्श देता है कि अजीवादि में तथा अशुद्ध जीवावस्था में 'अहम्' या 'मम' की मति छोड़कर शुद्ध परमात्मा के साथ 'सोऽहम्' की भावना को दृढ़ करे तो मुक्ति अवश्यम्भावी है।82 अज्ञान व आवरण के कारण ही परमात्मा व जीव में भेद दष्टिगोचर होता है। शुद्ध निश्चयनय या परमार्थदृष्टि से जीवात्मा भी शुद्ध चिद्र प है। साधक इस परमार्थ दृष्टि का ही अवलम्बन ले और परमात्मा को जीव और जीव को परमात्मा-दोनों को एक समझे, तो इस समभाव से शीघ्र निर्वाण प्राप्त कर लेता है 73. पद्मनन्दि पंच. 4/1, हेम. योगशास्त्र-10/1, नियमसार-40 पर ता. वृत्ति, अध्यात्मसार-18/74 74. पद्मनन्दि पंच. 4/26, 11/42, तत्त्वानुशासन-234, 236, इष्टोपदेश-49, समाधिशतक-35, ज्ञानसाराष्टक. 12/1, योगसार प्राभृत-5/40, मोक्षप्राभृत-5, नियमसार-7 75. द्र. ब्रह्मसूत्र-1/4 शांकर भाष्य । समयसार 390 व 404 पर आत्मख्याति टीका, एवं समयसारकलश-235 76. छान्दोग्य उप. 6/8/7 77. बृहदा. उप. 1/4/10 78. छान्दोग्य उप. 7/24/1 79. बृहदा. उप. 4/3/33 80. श्रुत्वा तत्त्वमसीत्यपास्य दुरितं ब्रह्म व सम्पद्यते (सर्वदर्शन-संग्रह - शांकरदर्शन, पृ. 466)। 81. अमितगति द्वात्रिंशिका-29, समाधिशतक-27-28, 97-98 82. नियमसार-96, समयसार 297, समयसारकलश-185, 271, समाधिशतक-23, 28, 43 ८८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य GARLIONan www.jainelib
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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