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________________ Jain साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ नाभासों का प्रतिपादन उन्होंने प्रशस्तपाद के अनुसार किया है । अन्तर इतना ही है कि माठर ने प्रशस्तपाद के बारह निदर्शनाभासों में दश को स्वीकार किया है और आश्रयासिद्ध नामक दो साधर्म्य - वैधर्म्य निदर्शनाभासों को छोड़ दिया है। पक्षाभास भी उन्होंने नौ निर्दिष्ट किये हैं । जैन परम्परा के उपलब्ध न्यायप्रन्थों में सर्वप्रथम न्यायावतार में अनुपान दोनों का स्पष्ट कथन प्राप्त होता है । इसमें पक्षादि तीन के वचन को परार्थानुमान कहकर उसके दोष भी तीन प्रकार के बतलाये हैं- १. पक्षाभास, २. हेत्वाभास और ३. दृष्टान्तामास । पक्षाभास के सिद्ध और बाधित ये दो 192 भेद दिखाकर बाधित के प्रत्यक्षबाधित, अनुमानबाधित, लोकबाधित और स्ववचनबाधित – ये चार 193 भेद गिनाये हैं | असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक तीन 194 हेत्वाभासों तथा छह साधर्म्य और छह 195 वैधर्म्य कुल बारह दृष्टान्ताभासों का भी कथन किया है । ध्यातव्य है कि साध्यविकल, साधनविकल और उभर्याविकल ये तीन साधर्म्यदृष्टान्ताभास तथा साध्याव्यावृत्त, साधनाव्यावृत्त और उभयाव्यावृत्त ये तीन वैधर्म्य दृष्टान्ताभास तो प्रशस्तपादभाष्य और न्यायप्रवेश जैसे ही हैं किन्तु सन्दिग्धसाध्य, सन्दिग्धसाधन और सन्दिग्धोभय ये तीन साधर्म्य दृष्टान्नाभास तथा सन्दिग्धसाध्यव्यावृत्ति, सन्दिग्धसाधनव्यावृत्ति और सन्दिग्धोभयव्यावृत्ति ये तीन वैधम्र्म्यदृष्टान्ताभास न प्रशस्तपादभाष्य में हैं 196 और न न्यायप्रवेश 197 में । प्रशस्तपादभाष्य में आश्रयासिद्ध, अननुगत और विपरीतानुगत ये तीन साधर्म्य तथा आश्रयासिद्ध, अव्यावृत्त और बिनरीतव्यावृत्त ये तीन वैधभ्यं निदर्शनाभास हैं । और न्यायप्रवेश में अनन्वय तथा विपरीतान्वय ये दो साधर्म्य और अव्यतिरेक तथा विपरीतव्यतिरेक ये दो वैधर्म्य दृष्टान्ताभास उपलब्ध हैं । पर हाँ, धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु 108 में उनका प्रतिपादन मिलता है । धर्मकीर्ति ने सन्दिग्धसाध्यादि उक्त तीन साधर्म्य - दृष्टान्ताभासों और सन्दिग्धव्यतिरेकादि तीन वैधर्म्यदृष्टान्ताभासों का स्पष्ट निरूपण किया है । इसके अतिरिक्त धर्मकीर्ति ने न्यायप्रवेशगत अनन्वय, विपरीतान्वय, अव्यतिरेक और विपरीतव्यतिरेक इन चार साधर्म्य वैधर्म्य दृष्टान्ताभासों को अपनाते हुए अप्रदर्शितान्वय और अप्रदर्शितव्यतिरेक इन दो नये दृष्टान्ताभासों at और सम्मिलित करके नव-नव साधर्म्य - वैधर्म्य दृष्टान्ताभास प्रतिपादित किये हैं । अकलंक 199 ने पक्षाभास के उक्त सिद्ध और बाधित दो भेदों के अतिरिक्त अनिष्ट नामक तीसरा पक्षाभास भी वर्णित किया है । जब साध्य शक्य ( अबाधित), अभिप्रेत (इष्ट) और असिद्ध होता है तो उसके दोष भी बाधित, aft और सिद्ध ये तीन कहे जाएंगे। हेत्वाभासों के सम्बन्ध में उनका मत है कि जैन- न्याय में हेतु न त्रिरूप है और न पाँच रूप; किन्तु एकमात्र अन्यथानुपपन्नत्व (अविनाभाव ) रूप है । अत: उसके अभाव में हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिंचित्कर । असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक ये उसी का विस्तार हैं । दृष्टान्त के विषय में उनकी मान्यता है कि वह सर्वत्र आवश्यक नहीं है। जहाँ वह आवश्यक है वहाँ उसका और साध्यविकलादि दोषों का कथन किया जाना योग्य है । माणिक्यनन्दि200, देवसूरि 201, हेमचन्द्र 202 आदि जैन तार्किकों ने प्रायः सिद्धसेन और अकलंक का ही अनुसरण किया है । इस प्रकार भारतीय तर्कग्रन्थों के साथ जैन तर्कग्रन्थों में भी अनुमानस्वरूप, अनुमानभेदों अनुमानांगों, अनुमानावयवों और अनुमानदोषों पर पर्याप्त चिन्तन उपलब्ध है । सन्दर्भ एवं सन्दर्भ - स्थल 1. हेदुवादो णयवादी पवरवादी मग्गवादो सुदवादो :- भूतबलि - पुष्पदन्त, षट्खण्डा० 5/5/51, शोलापुर संस्करण 1965 2. दृष्टागमभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते । —समन्तभद्र, युक्त्यनुशा ० का ० 48, वीर सेवामन्दिर, दिल्ली । जैन - न्याय में अनुमान - विमर्श : डॉ० दरबारीलाल कोठिया | ६५ www.jair
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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