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________________ साध्वारत्नपुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ) .... कागज के सदृश है। उस पर सत्कार्य की मुद्रा मारा जाता है । यदि मन में कषायों की सलवट हो अंकित हो जायेगी तो उस समय का मूल्य बढ़ तो उसे क्षमा, करुणा, मैत्री आदि के पानी से जायेगा। निकाल देनी चाहिये। शरीर की स्वस्थता के लिये रक्त प्रवाह की शब्दों में शक्ति है,यह सत्य है पर वे ही शब्द गति सम होनी चाहिये । जब रक्त का प्रवाह तेजी से अधिक शक्ति सम्पन्न होते हैं जिनके पीछे अनुभूति प्रवाहित होता है तो 'हाई-ब्लड-प्रेशर' कहलाता है की तीव्रता होती है। जिसका अनुभव जितना तीव्र और जब उसकी गति मंद हो जाती है तो लो-ब्लड- होगा, उसकी अनुभूति भी उतनी ही स्पष्ट होगी। प्रेशर' के नाम से अभिहित किया जाता है। दोनों कुआँ जितना गहरा होगा, उतना ही पानी ठंडा ही स्थितियाँ अस्वस्थता की निशानी हैं। होगा। जितने सेल शक्ति सम्पन्न होंगे उतना ही वैने ही उत्तेजना और निराशा दोनों ही प्रकाश तीव्र होगा। जो शब्द हृदय से निकलते हैं |स्थितियाँ साधक की साधना के लिये हितावह नहीं। वहा दूसरा के हृदय में प्रविष्ट होते हैं। | एक दिन रूप ने शील से कहा-मेरा यदि मन पवित्र है तो वाणी स्वतः पवित्र सौन्दर्य कितना सुहावना और लुभावना है। जो होगी। मन में अपवित्रता और गन्दगी भरी हुई भी देखता है वह मुग्ध हो जाता है ।। है तो वाणी में पवित्रता कहां से आयेगी ? शील ने कहा-तुम्हारा महत्त्व अवश्य है । कई बार वाणी पवित्र और मधुर होती है पर मेरे बिना नहीं। जब हीरा-सोने की अगूंठी में पर मन में हलाहल विष भरा रहता है । 'विष जड़ जाता है तो उसकी चमक-दमक निराली हो कुम्भम् पयोमुखम्' इस उक्ति का वह प्रतीक है। है। तुम भी हीरे के सदृश हो जब शील की स्मरण रहे, मन वाणी का दास नहीं है किन्तु वाणी मुद्रिका में जड़े जाओगे तब तुम्हारे में अपूर्व निखार मन की दासी अवश्य है। आ जायेगा। बालक का जीवन कच्चे माल के सदृश है। जो दूसरों के हित को नष्ट कर स्वयं का कच्चे माल को जिस सांचे में ढाला जायेगा वही हित साधता है वह दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति है । जो आकृति ग्रहण करेगा यदि ढांचे में ही विकृति है तो दूसरों के हित को नष्ट न कर स्वयं का कार्य ढालने वाली वस्तु में उस विकृति का आना स्वाभासम्पन्न करता है वह मानव है। जो स्वयं का हित विक है । माता-पिता का जीवन दुर्व्यसनों से ग्रसित भी करता है और साथ ही दूसरों के हित करने में है तो सन्तान भी दुर्व्यसनी होगी। तत्पर रहता है वह जन सज्जन कहलाता है और प्यार और खार ये दो शब्द हैं। एक से जो स्वयं की चिन्ता न कर दूसरों के हित साधन में मित्र बनते हैं तो दूसरे से शत्रु। मानव प्यार को त्पर रहता है। वह महाजन है महाजन का छोड़कर खार को अपनाता है जिससे जीवन में कर्तव्य बहुत ही ऊँचा है । उसके सारे कार्य पर की अशान्ति के काले-कजरारे बादल मंडराते हैं। यदि उन्नति के लिए होते हैं। पर आज का महाजन वह प्यार को पाले तो अशान्ति उसी तरह भाग कधर जा रहा है यह आत्म-चिन्तन का विषय है। जाएगी जैसे दक्षिणात्य पवन चलने पर बादल नष्ट यदि कपड़े में कहीं सलवट हो तो मानव हो जाते हैं। से पानी में भिगोकर निकालने का प्रयास करता एक दिन द्राक्षा ने श्रीफल का उपहास । वह सोचता है कि सलवट से कपड़े का सौंदर्य करते हुए कहा-किस मूर्ख ने तुम्हारा नाम श्रीफल : चिन्तन के सूत्र : जीवन की गहन अनुभूति | २२३ www.jainelibras म tional
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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