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________________ शालीनता है, उसमें विवेक, विचार और उदात्तता सहज रूप से प्रतिबिम्बित है, जो दर्शक को प्रभावित करती है । एक क्षण में दर्शक श्रद्धा से नत हो जाता है । सतीत्व के अपूर्व तेज का सत्त्व आपके जीवन के कण-कण में व्याप्त हैं। आपमें जहां गम्भीर विद्वत्ता है, वहाँ नम्रता की भी प्रमुखता है । आपकी प्रवचन कला बेजोड़ है, आपका व्यक्तित्व जादुई है । साधना के महपथ पर निस्पृह और निरकाँक्ष भाव से आप सरिता की सरस धारा की तरह बढ़ रही हैं, आपका जीवन धर्म, सदाचार, सत्य, अहिंसा, विश्व - प्रेम और विश्व मानवता का पावन प्रतिष्ठान है । इसीलिए आप जन-जन की वन्दनीया हैं । सूर्य का कार्य है – विश्व को प्रकाश देना, जन-जन को ऊष्मा प्रदान करना, जल का कार्य हैशीतलता का संचार करना, पृथ्वी का कार्य है - सभी को धारण करना और अनन्त आकाश का कार्यं. है - सभी को आश्रय देना । इसी तरह आपके जीवन का संलक्ष्य है - जन-जीवन को जागृत करना, जनजीवन में रही अनन्त सुप्त शक्तियों को जागृत करना । नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा, इन्सान से भगवान बनाने का मार्ग बताना । जैसे ये प्राकृतिक सम्पदाएँ उपकार के बदले में आभार की अपेक्षा नहीं करतीं, पर अतीतकाल से ही मानव सूर्य की वन्दना करता रहा है, पृथ्वी, जल और आकाश की स्तुतियों में उसकी स्वर लहरियाँ झंकृत होती रही हैं, इसी तरह गुरुजनों के असीम एवं अनन्त उपकार के प्रति विनम्रता ज्ञापन करना हमारा परम कर्त्तव्य है । हम अपने उपकारी के प्रति मौन रहते हैं तो वह वाणी की चोरी है, उनके सद्गुणों को जन-जन के समक्ष प्रस्तुत करना शिष्य का कर्त्तव्य है । प्रस्तुत उपक्रम उसी कृतज्ञता का अहसास है, इसमें हमारे हृदय की भक्तिभावना का सहज प्रस्फुटन है, इसमें प्रदर्शन नहीं, अन्तःस्फुरित भावना है । सर्वप्रथम यह कल्पना मेरे मस्तिष्क में उद्बुद्ध हुई और मैंने यह कल्पना सद्गुरुणीजी के सामने प्रस्तुत की, पर वे स्पष्ट रूप से इन्कार हो गईं। और कहा- मुझमें कहाँ सद्गुण हैं, यदि अभिनन्दन ग्रन्थ निकालना ही है तो सद्गुरुणी जी श्री सोहनकुँवर जी म. का निकालें । वे गुणों की साक्षात् प्रतिमा थीं। उनका तप, उनका त्याग, उनकी क्षमा, निर्लोभता सभी सद्गुण अनूठे थे । पर मेरा मन आपश्री के अभिनन्दन ग्रन्थ निकालने के लिए ललक उठा । जो महान आत्माएँ होती हैं वे सदा दूसरों के गुणों को निहारती हैं, और अपने दुर्गुणों को देखती हैं । किन्तु मेरा ही नहीं, जितने ही व्यक्ति आपके सम्पर्क में आये हैं वे आपके सद्गुणों के सौरभ से गमक उठे हैं । जहाँ एक ओर आप परम विदुषी है, तो दूसरी ओर पहुँची हुई साधिका हैं । आपका व्यक्तित्व ज्ञान की गरिमा और साधना की महिमा से अच्छी तरह कसा हुआ है । जहाँ एक ओर आपमें विनम्रता की प्रधानता है, तो दूसरी ओर सिद्धान्त-निष्ठा भी गजब की है । जहाँ आप में आचार-निष्ठा है, वहाँ अनुशासन की कठोरता भी है । आपके जीवन में सद्गुणों का ऐसा मधुर संगम है, जो देखते ही बनता है । अभिनन्दन ग्रन्थ की परिकल्पना जब मस्तिष्क में उद्बुद्ध हुई तो सर्वप्रथम मैंने वह योजना सद्गुरुवर्य उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी के समक्ष प्रस्तुत की, उन्होंने उसी समय मेरी नम्र प्रार्थना को सम्मान देकर रूप-रेखा तैयार कर दी, मुझे लिखते हुए अपार आल्हाद हो रहा है कि उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ के लिए जो प्रयास किया, उनका में किन शब्दों में आभार व्यक्त करू, उन्होंने ही सभी मूर्धन्य मनीषियों से पत्राचार किया, लेख मँगवाये, और उन सभी का सम्पादन कर मेरे श्रम को वहन कर अपनी ज्येष्ठ भगिनी के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है। १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only सम्पादकीय www.jainelibrary.org
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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