SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय जब हम आगम-साहित्य का गहराई से अनुशीलन परिशीलन करते हैं, तो हमें कुछ ऐसे महत्त्वपूण संकेत प्राप्त होते हैं जो साधक-जीवन के लिये वरदान रूप हैं। श्रमण-श्रमणियों के लिए एक महत्त्वपूर्ण सूचन यह किया गया है कि वह वन्दना-अर्चना की अभिलाषा न करें। "वन्दणं नावकंखेज्ज ।" ___जब तक साधक निस्पृह व निरकांक्ष नहीं बनता, तब तक वह आत्म-साधना के कठोर कंटकाकीर्ण महापथ पर अपने मुश्तैदी कदम नहीं बढ़ा सकता। निस्पृह और निरकाक्ष जीवन ही श्रमण जीवन का ज्वलंत आदर्श है। आगम-साहित्य में जहाँ श्रमण जीवन की महत्ता के सम्बन्ध में प्रस्तुत संकेत है, वहाँ पर शिष्य के कर्तव्य के सम्बन्ध में भी सन्दर निदर्शन है। वहाँ पर स्पष्ट रूप से कहा गया है जैसे ज्योति प्रतिपल, प्रतिक्षण प्रज्वलित रखने वाला ब्राह्मण विविध आहुतियाँ एवं मन्त्रों के द्वारा अभिषेक करता है, उसकी पूजा और अर्चा करता है, वैसे शिष्य अनन्त ज्ञान के दिव्य आलोक आलोकित हो जाय, तथापि आचार्य की, गुरुजनों की विनयपूर्वक सेवा करें, संस्तुति करें, वरना अभिनन्दना करें। कहा है जहाहियग्गी जलणं नमसे नाणाहईमंत-पयाभिसित्त। एवायरियं उचिठ्ठइज्जा, अणंतनाणोवगओ वि संतो।। साधक के जीवन में समर्पण, कृतज्ञता, विनम्रता का अनूठा स्थान है, उसका विनम्र होना बहत ही आवश्यक है। जो साधक गुरुजनों के प्रति समपित है, एक निष्ठा के साथ अपने आपको अनि कर देता है, उसके जीवन में शान्ति का महासागर ठाठे मारने लगता है। ___सद्गुरुणी जी श्री पुष्पवतीजी इस शताब्दी की एक विशिष्ट स्मरणीया, वर्णनीया, वन्दनीया श्रमणी रत्न हैं। उनमें ऐसी दुर्लभ और अद्भुत विशेषताएँ हैं, जो अन्य श्रमणियों में निहारी नहीं जा सकतीं। दीप्तिमान, निर्मल, गेहुँआ वर्ण, दार्शनिक मुख-मण्डल पर खेलती निश्छल स्मितरेखा, उत्फल्ल नीलकमल की भांति स्नेह-स्निग्ध विहँसती आँखें, सुवर्णपत्रसा चमकता-दमकता सर्वतोभद्र भाल पटट, कर्मयोग की ज्वलंत प्रतिमा रूपी सुगठित, संतुलित देहयष्टि, यह है-सद्गुरुणी जी का बाह्य व्यक्तित्व । वे जितनी बाहर से सून्दर हैं, अन्दर से उससे भी अधिक मनोभिराम हैं। उनकी भव्य मुखाकृति पर बालक की भांति सरलता है, उनके नेत्रों में सहज उदारता, सहज स्नेह सुधा छलकती है। वार्तालाप में अत्यन्त सम्पादकीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy