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साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ
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__ भाभी तीजकुंवर ने कहा-लालाजी! आपने दीक्षा की आज्ञा लिखते समय जो बीस हजार रुपये बैंक में सुन्दरि के नाम पर जमा करने की बात कही। वह मेरी समझ में नहीं आई कि उसका क्या रहस्य है ? त्याग के साथ परिग्रह की यह कैसी शर्त है ?
रतनलालजी ने कहा--भाभीजी ! यह बहुत सीधी बात है कि सुन्दरि दीक्षा ले रही है । यदि उनका मन संयमी जीवन में नहीं लगा और यदि यह पुनः गृहस्थ बनना चाहे तो बोस हजार रुपयों के ब्याज से भी यह अपना गुजरा कर लेगी।
भाभी तीजकुंवर ने कहा-लालाजी ! आपने खूब सोची है। जब आपको शादी हुई, तब आपके श्वसुर ने दहेज के साथ विधवा का वेश भी दिया होगा। उन्होंने सोचा होगा कि यदि बेटी विधवा हो जायेगी तो क्या पहनेगी?
इस बात को सुनकर रतनलालजी ने कहा-विवाह के सुनहरे अवसर पर इस प्रकार अशुभ कौन सोचेगा ? इस प्रकार सोचना ही मूर्खता है ।
भाभी तीजकुंवर ने कहा-लालाजी, फिर आपका यह सोचना बुद्धिमानी हैं क्या ? आप तो साक्षर हैं । फिर इस प्रकार की बात सोचना क्या उचित है ?
भाभी तीजकुंवर की बात सुनकर रतनलालजी ने कहा-अभी आपको मेरी गर्ज है, इसीलिए मेरी इतनी खुशामद कर रही हैं । पर मेरी बात मानने के लिए आप प्रस्तुत नहीं है ।
भाभी तीजकुंवरि ने स्वाभिमान के साथ कहा-मैं आपका बहुमान करतो हूँ। इसोलिए मैंने आपकी गर्ज की है। यों में स्वयं बड़ी हूँ। मैं अपना काम अपने आप कर लूंगी। मेरे को अब किसी की खुशामद करने की आवश्यकता नहीं है ।
रतनलालजी भाभी के चेलेंज को सुनकर क्रोध से तिलमिला उठे। उन्होंने कोर्ट में अर्जी लिखवा दी कि सुन्दरि की माँ तीजकुंवर सौतेली माँ है। इसलिए वह सुन्दरि को उसकी बिना इच्छा के ही दीक्षा दिला रही है। मेरे जेष्ठ भाई जीवनसिंहजी का देहान्त हो गया है। अतः मेरी भौजाई मनमानी कर रही है । उसे रोका जाय । सुन्दरिकुमारी और धन्नालाल यह दोनों नाबालिग हैं। अतः जल्दी से जल्दी रोकने की कार्यवाही की जाए।
दूसरे दिन थानेदार पुलिस को लेकर घर पर पहुँचा। और उसने दरवाजे पर खड़े रह कर आवाज लगाई कि जीवनसिंहजी कहाँ हैं ? उनकी लड़की सुन्दरिकुमारी और उनका लड़का धन्नालाल कहाँ है ? उनके हस्ताक्षर करवाने हैं।
पुलिस को देखकर धन्नालाल ने कहा-हमारे पिताजी श्मशान में गये हुए हैं। आप पहले वहाँ जाकर उनसे हस्ताक्षर करवाइये। फिर हमें हस्ताक्षर के लिए कहियेगा।
थानेदार ने उस सलौने बालक को अपनी गोद में उठा लिया और उसके सिर को चूमते हुए बोला-हम तो सरकार के नौकर हैं । बेटा, तुम्हारे चाचाजी ने अर्जी की तुम्हारी माता तुम्हें जबरदस्ती दीक्षा दिला रही है। इसीलिए हमें यहाँ आना पड़ा है। सुन्दरिकुमारी उसी समय कमरे से बाहर आई और कहा-में स्वयं अपनी इच्छा से दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ। इसमें माता की कोई जबरदस्ती नहीं है । उसने कागज पर हस्ताक्षर कर दिये । थानेदार चला गया।
१८२ | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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