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________________ साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ महासती मदनकुवरजी और सोहनकुंवरजी के त्याग की छाप गहरी पड़ी थी । पर सम्प्रदायवादियों ने उनके मस्तिष्क में एक विचार ठस दिया था और वही विचार उनको आज्ञा देने से रोक रह कन्हैयालालजी ने सुन्दरि को कहा-मेरी आज्ञा बिना महासतीजी दीक्षा नहीं देंगी। यदि तू मेरी बात को मान जाएगी तो मैं तेरी दीक्षा चट-पट करवा दूंगा। मुझे समाज में रहना है। समाज के अग्रगण्य व्यक्तियों की बात नहीं मानूं । यह कैसे हो सकता है ? तु अभी मेरी बात पर गहराई से चिन्तन कर। दादाजी चल बसे यह हम पूर्व ही लिख चुके हैं कि ज्येष्ठ पुत्र जीवनसिंह के देहावसान के पश्चात् कन्हैयालालजी का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरने लगा था। चिन्ता का घुन लग चुका था। परिवार की सारी जिम्मेदारी उन पर ही आ गई थी। लम्बा-चौड़ा व्यापार फैला हुआ था। द्वितीय पुत्र रतनलालजी को व्यापार में रस नहीं था। वे विद्याभवन में अध्ययन करवाने लगे। और अन्य तीन पुत्र छोटे थे। अतः मन ही मन में कन्हैयालालजी घुलते चले जा रहे थे। जिसके कारण एक दिन देखते ही देखते लम्बी बीमारी के पश्चात् उन्होंने सदा के लिए आँखें मूंद लीं। जीवन के अन्तिम क्षणों में भी उनकी धार्मिक भावना सराहनीय रही । पर साम्प्रदायिक व्यक्तियों के प्रभाव के कारण वे सुन्दरि को दीक्षा की आज्ञा न दे सके । दादाजी के स्वर्गवास के पश्चात् वातावरण में परिवर्तन हो गया। आठ माह का समय दादाजी का अनुनय-विनय करते हुए बीत गया था। अब परिवार का उत्तरदायित्व सुन्दरि के चाचा रतनलाल जी पर आ गया था। रतनलालजी जीवन के उषा काल से ही पाश्चात्य भौतिक विचारों में पले-पुसे थे। उनको धार्मिक क्रिया-काण्डों के प्रति लगाव नहीं था। उनका सिद्धान्त था-'इट, ड्रिंक एण्ड बी मेरी' खाओ पीओ और मौज करो। वे उस समय विद्याभवन में रहते थे। सुन्दरि अपनी माता और भाई के साथ चाचा के पास पहुंची और दीक्षा की अनुमति के लिए आज्ञा चाही।। रतनलालजी ने कहा-यह उम्र खाने-पीने की है, मौज-मजा करने की है। इस उम्र में दीक्षा लेना उचित नहीं है । तू दीक्षा क्यों लेती है ? । उत्तर में सुन्दरि ने कहा-चाचाजी ! दीक्षा बुभुक्षु नहीं, मुमुक्षु लेता है। यदि बुभुक्षु लेता हो तो बहुत से भिखारी दीक्षा ले लें। दीक्षा एक ऐसा पवित्र संस्कार है जो हमें बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बनाता है । अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। जिसके अन्तर्मानस में वैराग्य भावना की प्रबलता होती है, वही साधक इस पथ का पथिक बनता है। चाचा की चालें रतनलालजी ने सुन्दरि को कहा-कुछ दिन तू मेरे पास रह। फिर मैं देखूगा कि तेरी वैराग्य भावना कैसी है ? यदि मुझे यह आत्म-विश्वास हो गया तो फिर मैं दीक्षा की अनुमति दे दूंगा। सुन्दरि को क्या आपत्ति थी ? वह चाचा के पास रह गई। विविध प्रश्न पर प्रश्न कर वे उसके वैराग्य सागर की थाह लेना चाहते थे। खान-पान आदि के द्वारा वैराग्य को कसना चाहते थे। सभी परीक्षाओं में जब सुन्दरि समुत्तीर्ण हो गई तो उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने सुन्दरि की माताजी से कहा--भाभीजी मैं दीक्षा की आज्ञा लिख रहा हूँ। पर मैं चाहता हूँ कि सुन्दरि के नाम से कम से कम बीस हजार रुपये बैंक में जमा करवा दें। एक बूद, जो गंगा बन गई : साध्वी प्रियदर्शना| १८१ www.jaine : : : : ::::
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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