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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ) का वर्णन साधु जीवन में एक नहीं, अनेक परीषह सहन करने पड़ते हैं तू तो जीवन की उषा काल से ही चटोकड़ी रही है । तुझे गर्मा-गर्म रोटी खाना पसन्द है और सब्जी भी तुझे वह चाहिए जिस पर चार अंगुल घी तैरता हो । तुझे ताजी मिठाई चाहिए । बासी मिठाई तो तुझे पसन्द नहीं है। नित नये वस्त्र और आभूषण चाहिए। ऐसी स्थिति में तू शांति के क्षणों में सोच कि दीक्षा लेकर किस प्रकार तू नियमोपनियम का पालन कर सकेगी ? देख ! अभी तू बच्ची है। भावना के प्रवाह में बह रही है। पर साधना का मार्ग बड़ा कठोर है । जिस पर चलते समय बड़े-बड़े वीरों के कदम लड़खड़ाते हैं। अतः गहराई से सोच । संयम का मार्ग कोई बच्चों का खेल नहीं है। सुन्दरि दादाजी की बातों को बहुत ही ध्यान से सुनती रही। जब दादाजी ने अपनी बात पूरी की तो उसने पुनः निवेदन करना प्रारम्भ किया-दादाजी ! मैं लम्बे समय से चिन्तन करती रही हैं। आप घबराए नहीं । अन्तगड दशांग सूत्र में मैंने सम्रट श्रेणिक की और कृष्ण महाराज की महारानियों हा है। जो फूल से भी अधिक सुकुमार थीं। जिन्होंने संसारावस्था में सूर्य की रोशनी के भी दर्शन नहीं किए। ऐसी वे कोमलांगी जब साधना के मार्ग में प्रविष्ट होती हैं तो इतना उग्र तप करती हैं जिस वर्णन को पढ़ते-पढ़ते रोंगटे खड़े हो जाते हैं । वे सिंहनी की तरह निरन्तर आगे बढ़ती हैं। वैसे ही मैं भी साधना के पथ में आगे बढूंगी। मनुष्य का मन तो पानी की तरह है । पानी को जैसा बर्तन मिले वैसा ही आकार धारण कर लेता है । मन को भी जैसा वातावरण व संस्कार मिलता है वैसा ही बन जाता है । मैं धर्मवीर दादा की पोती हूँ । वीरता मेरे संस्कारों में भरी है । विभिन्न परीक्षाए दादाजी में धार्मिक भावना कूट-कूट कर भरी थी; किन्तु मोह की प्रबलता से वे आज्ञा देना नहीं चाहते थे । वे चाहते थे कि सुन्दरि गृहस्थाश्रम में रहे । उन्हें वार्तालाप से ही यह ज्ञात हो गया था कि यह निरन्तर मुखवस्त्रिका मुख पर रखती है । हमेशा दया व्रत करती है । अतः उन्होंने जरा कठोर होकर कहा-देख, भोजन घर में सारा सामान पड़ा है । मैं चाहता हूँ कि तू मुझे अपने हाथ से भोजन बनाकर खिलाए । आज मेरे साथ बैठकर भोजन करे । यदि तू मुझे अपने हाथ से बनाकर भोजन न खिलायेगी तो मैं स्वयं भोजन नहीं करूगा । और तुझे भी भोजन नहीं करना है। मैं देखना चाहता हूँ तेरी पाक-कला। सुन्दरि ने निवेदन किया-आदरणीय दादाजी ! मैंने सचित्त वस्तु के स्पर्श का त्याग कर रखा है। भोजन तो बिना सचित्त वस्तु के स्पर्श के नहीं बन सकता । आपने ही तो एक दिन फरमाया था कि नियम को लेकर तोड़ना नहीं चाहिए। इसलिए मैं आपकी इस आज्ञा का किस प्रकार पालन कर सकती हूँ ? दादाजी धार्मिक वृत्ति के कारण नियम भंग करने के लिए कह नहीं सकते थे, तथापि उनके तार्किक मस्तिष्क ने एक उपाय ढूंढ ही लिया । उन्होंने कहा-जो नियम लेने का पाठ है, उसमें 'महत्तरागारेणं' यह आगार है । इस आगार के अनुसार बड़ों की आज्ञा को सम्मान देकर तू भोजन बनाकर मुझे खिला सकती है। ___ सुन्दरि ने पुनः विनयपूर्वक निवेदन किया कि 'महत्तरागारेणं' जो आगार है वह साधू और साध्वियों के लिए है । आध्यात्मिक साधना करते समय यदि आध्यात्मिक समुत्कर्ष के लिए गुरुजन आज्ञा प्रदान करते हों तो उसके पालन की बात है । सामान्य व्यक्तियों के द्वारा कहा हुआ कथन 'महत्तरागारेणं' १७८ | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन www.jainelibracx3709
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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