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________________ साध्वारत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ओर गुरुणोजो जानती था । लगभग एक महीना पूरा होने ही वाला था । सुन्दरि की उम्र तेरह वर्ष की चल रही थी। एक दिन पारिवारिकजनों से ही सुन्दरि को पता लगा कि दादाजी मेरे लिए वर की तलाश कर रहे हैं। उन्होंने दो-चार लड़के भी देखे हैं। यदि इस समय मैं मौन रहूँगी तो वे सम्बन्ध पक्का कर लेंगे । एक बार वाग्दान होने के पश्चात् समस्या और अधिक उलझ जायेगी। वह अपनी मां के साथ गुरुणीजी के पास पहुंची। और सारी स्थिति गुरुणीजी से निवेदन की । पूछा-मुझे क्या करना चाहिए ? गुरुणीजी श्री सोहनकुंवरजो ने कहा-सुन्दरि ! मैं इस सम्बन्ध में तुझे क्या सुझाव दूं ? यदि तेरी वैराग्य भावना प्रबल है तो वह भावना दादाजो के सामने अच्छी तरह से बता दे । यदि वैराग्य भावना सुदृढ़ नहीं है तो मौन रहना ही अच्छा है। दादाजी चौंक गये चैत्र शुक्ला अष्टमी का दिन था। विक्रम संवत १९६४ चल रहा था । भगवान ऋषभदेव का जन्म दिन था । सुन्दरि ने दादाजी के चरणों में नमस्कार कर, नम्र निवेदन किया-पूज्यवर ! आप मेरे लिए वर की तलाश कर रहे हैं ऐसा मैंने सुना है । तो मेरा आपसे यह बहुत ही नम्र शब्दों में निवेदन है कि मैं विवाह नहीं करूँगी । ऐसा मैंने अपने मन में दृढ़ संकल्प किया है । जब से माता जी, भाई, पिताजी, नानाजी और बड़ी दादी का स्वर्गवास हुआ, तभी से मेरे अन्तमानस में एक द्वन्द्व चल रहा है कि मृत्यु क्या है ? मृत्यु क्यों होती है ? और अमर बनने का क्या उपाय है ? मेरा सद्भाग्य है कि मुझे आप जैसे वात्सल्य के देवता, धर्ममूर्ति दादाजी मिले हैं। आपने ही हमें सद्गुरुणीजी महाराज का परिचय कराया है । जिससे मुझे योग्य मार्ग-दर्शन मिला है कि हमारा जीवन बहुमूल्य है । वह कूकर और शूकर की तरह वासना की गन्दगी चादने के लिए नहीं है । और न चार गतियों की गलियों में भटकने के लिए ही है । हमें यह मानव जीवन मिला है । इस जीवन को साधना कर हमें चमकाना है। इसलिए मेरा सनम्र निवेदन है कि आप मुझे आज्ञा प्रदान करें। दादाजी कन्हैयालाल जी ने अपनी पौत्री के मुंह से अपनी कल्पना के विरुद्ध जब बात सुनी तो वे एक क्षण स्तब्ध रह गए । वे सोच ही नहीं सके कि मैं क्या सुन रहा हूँ ? उन्होंने बहुत ही प्यार से सुन्दरि को अपने पास बैठाया । और कहा-बिटिया ! तू बहुत सुकुमार है । जीवन ने तुझे फूल की तरह रखा है। मेरा भी अपार प्यार तुझे मिला है। सारे परिवारिक लोग तुझे अपने प्राणों से भी अधिक चाहते हैं। तू यह क्या कह रही है ? साधु का मार्ग कोई सरल मार्ग नहीं है । यह मार्ग नुकीले काँटों पर चलने के सदृश है। तेरे बाल कितने मुलायम और सुन्दर है ? इन बालों को हाथों से नोचकर निकालना । कितना कठिन है। एक बाल भी तोड़ने पर आकाश के तारे नजर आ जाते हैं । फिर इतने बालों का लोच कैसे करोगी ? तुम्हारे पैर कितने कोमल हैं ? इन कोमल पैरों से तुम किस प्रकार विहार कर सकोगी। सर्दी में तीक्ष्ण काँटे और कंकर चुभेगे । बर्फ की तरह ठंडी जमीन पर चलना बहुत ही कठिन है। गर्मी के दिनों में जब सूर्य की चिल-चिलाती धूप गिरती है तो रेत तप्त तवे की तरह तपने लगती है । उस पर चलने से पैर झुलस जाते हैं । सन्त और सतियों के पास वस्त्र भी सीमित होते हैं। जब सनसनाती हुई हवा चलती है तो कई बार सन्त और सतियों को रात भर बैठ कर निकालना होता है । वे ठण्ड से नींद भी नहीं ले सकते। भोजन भी उन्हें मांग कर ही लाना होता है । कभी घी घणा, कभी मुट्ठी चणा और कभी वह भी मना है। एक बूद, जो गंगा बन गई : साध्वी प्रियदर्शना | १७७ पOAR JONenatione www.jamenued
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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