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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ H HHI HHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHH प्रतिभासम्पन्न साध्वी थीं। आपके स्वर्गवास से एक तेजस्वी महासती की क्षति हुई । आपका तेजस्वी जीवन जन-जन को सदा प्रेरणा देता रहेगा। महासती कुसुमवतीजी विदुषी महासती श्री सोहनकुंवर महासती की प्रथम शिष्या विदुषी महासती कुसुमवतीजी हैं। उनकी तीन शिष्याएँ हैं-बालब्रह्मचारिणी महासती चारित्रप्रभाजी, बालब्रह्मचारिणी महासती दिव्यप्रभाजी, बालब्रह्मचारिणी गरिमाजी । महासती चारित्रप्रभाजी के पाँच शिष्याएँ हैं (१) विदुषी बालब्रह्मचारिणी दर्शनप्रभाजी (२) महासती विनयप्रभाजी, (३) महासती रुचिकाजी, (४) महासती राजश्रीजी (५) महासती प्रतिभाजी तथा महासती श्री दिव्यप्रभाजी की दो शिष्याएँ हैं-(१) महासती अनुपमा, (२) महासती निरुपमा और विदुषी महासती पुष्पवतीजी द्वितीय शिष्या हैं । उनकी चार शिष्याएँ हैं—बालब्रह्मचारिणी चन्द्रावतीजी, बालब्रह्मचारिणी प्रियदर्शनाजी, बालब्रह्मचारिणी किरणप्रभाजी, और बालब्रह्मचारिणी रत्नज्योतिजी । महासती प्रियदर्शना जी की शिष्या महासती सुप्रभाजी है । (महासती पुष्पवतीजी का जीवन वृत्त अगले पृष्ठों पर इसी खण्ड में अंकित है)। प्रज्ञामूति प्रभावतीजी महाराज तृतीय सुशिष्या प्रज्ञामूति महासती प्रभावतीजी थीं। आप प्रबल प्रतिभा की धनी, आगम और दर्शन की गम्भीर ज्ञाता थीं। आपने आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, विपाक, सूत्रकृतांग, प्रभृति अनेक आगम कंठस्थ किये थे और साथ ही आगम के रहस्यों को समुद्घाटित करने वाले ४००-५०० थोकडे भी कंठस्थ थे। जिससे आगम की गुरु गम्भीर ग्रन्थियों को अपनी प्रकृष्ट मेधा से उद्घाटित कर देती थीं। नन्दीसूत्र के प्रति अत्यधिक अनुराग था। उसकी स्वाध्याय दिन में अनेकों बार करती थी। आपकी प्रवचन कला सहज थी। प्रवचन में आगम के रहस्यों को सहज और सुगम रूप से प्रस्तुत करती थीं। और उसके लिए आगमिक उदाहरणों के साथ लौकिक जन-जीवन में घटित होने वाली घटनाओं के माध्यम से स्पष्टीकरण करतीं, जिससे श्रोता मंत्र-मुग्ध हो जाता था। आप कवयित्री थीं। आपकी कविता में शब्दाडम्बर नहीं, पर भावों की प्रमुखता थी। जब कभी भी भावों का ज्वार उठता, वह सहज ही भाषा के रूप में ढल जाता । कविता बनाने के लिए उन्हें प्रयास करने की आवश्यकता नहीं थी, वह सहज ही बन जाती। अरिहंत देव की स्तुति करते हुए उनकी हत्तन्त्री के तार इस प्रकार झनझनाये हैं "जय अरिहंताणं, अरिहंत देव भगवान्, जय अरिहंताणं, धर अरिहंतां रो ध्यान"...." पाँच पदां में प्रथम पद, मदरहित निरापद जान । ज्ञान का महत्व प्रतिपादित करते हुए आगम की शब्दावली को अपनी सहज भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया है मानो आगम का रस-पान ही कर लिया है। वह तीव्र अनुभूति की अभिव्यक्ति कितनी Bitt iiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiHI सुबोध है E RRE मममममम्म "ज्ञान जो होगा नहीं तो, हो नहीं सकती दया । आगमों में वीर द्वारा, वचन फरमाया गया" ज्ञान जीवाऽजीव का पहले जरूरी चाहिए। फिर क्रियाएँ कीजिए, रस प्राप्त हो सकता नया ।। ध्यान जीवनोत्कर्ष की मंगलमय साधना है, आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का सर्वोच्च उपाय है । ध्यान जैन शासन प्रभाविका अमर साधिकाएं एवं सद्गुरुणी परम्परा : उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि | १५६ www. ia
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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