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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
पश्चात् साध्वी परम्परा का व्यवस्थित इतिहास न मिलना हमारे लिए लज्जास्पद है जबकि श्रमणों को की तरह श्रमणियों ने भी आध्यात्मिक साधना में अत्यधिक योगदान दिया है। इसका मूल कारण है एकता व एक समाचारी का अभाव । अतः उन्होंने श्री वर्द्धमान चन्दनबाला श्रमणी संघ का निर्माण किया और श्रमणियों के ज्ञानदर्शनचारित्र के विकास हेतु इक्कीस नियमों का निर्माण किया। उसमें २५ प्रमुख साध्वियों की समिति का निर्माण हुआ । चन्दनबाला श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी पद पर सर्वानुमति से आपश्री को नियुक्त किया गया जो आपकी योग्यता का स्पष्ट प्रतीक था।
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उदार व दीर्घदर्शी दृष्टि
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राजस्थान प्रान्त में रहने के बावजद भी आपका मस्तिष्क संकुचित विचारों से ऊपर उठा हआ था । यही कारण है कि सर्वप्रथम राजस्थान में साध्वियों को संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी भाषा के उच्चतम अध्ययन करने के लिए आपके अन्तर्मानस में भावनाएँ जागृत हुईं। आपने अपनी सुशिष्या महासती कुसुमवतीजी, पुष्पवतीजी, चन्द्रावतीजी आदि को किंग्स कालेज बनारस की संस्कृत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की साहित्य रत्ल प्रभति उच्चतम परीक्षाएँ दिलवायी। उस समय प्राचीन विचारधारा के व्यक्तियों ने आपश्री का डटकर विरोध किया कि साध्वियों को संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी का उच्च अध्ययन न कराया जाय और न परीक्षा ही दिलवायी जाएँ। तब आपने स्पष्ट शब्दों में कहा-. साधुओं की तरह साध्वियों को भी अध्ययन करने का अधिकार है। आगम साहित्य में साध्वियों के
। उल्लेख है। युग के अनुसार यदि साध्वियां संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का अध्ययन नहीं करेंगी तो आगम और उसके उत्तरकालीन साहित्य को पढ़ नहीं सकतीं और बिना पढ़े आगमों के रहस्य • समझ नहीं आ सकते । इसका विरोधियों के पास कोई उत्तर नहीं था। आप विरोध को विनोद मानकर अध्ययन करवाती रहीं। उसके पश्चात् स्थानकवासी परम्परा में अनेक मूर्धन्य साध्वियां हुईं। आज अनेक साध्वियां एम. ए., पीएच. डी भी हो गयी हैं। यह था आपका शिक्षा के प्रति अनुराग ।
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आपने अनेक व्यक्तियों को प्रतिवोध दिया। जब अन्य सन्त व सतीजन अपनी शिष्या बनाने के लिए उत्सुक रहती हैं तब आपकी यह विशेषता थी कि प्रतिबोध देकर दूसरों के शिष्य व शिष्याएँ बनाती थीं। आपने अपने हाथों से ३०-३५ बालिकाओं और महिलाओं को दीक्षाएँ दी पर सभी को अन्य नामों से ही घोषित किया । अपनी ज्येष्ठ गुरु बहन महासती मदनकुंवरजी के आग्रह पर उनकी आज्ञा के पालन हेतु तीन शिष्याओं को अपनी नेश्राय में रखा । यह थी आप में अपूर्व निस्पृहता। मुझे भी (देवेन्द्र मुनि) आद्य प्रतिबोध देने वाली आप ही थीं।
आपके जीवन में अनेक सद्गुण थे जिसके कारण आप जहाँ भी गयीं, वहाँ जनता जनार्दन के हृदय को जीता। आपने अहमदाबाद, पालनपुर, इन्दौर, जयपुर, अजमेर, जोधपुर, ब्यावर, पाली, उदयपुर, नाथद्वारा, प्रभृति अनेक क्षेत्रों में वर्षावास किये, सेवा भावना से प्रेरित होकर अपनी गुरु बहिनों की तथा अन्य साध्वियों की वृद्धावस्था के कारण दीर्घकाल तक आप उदयपुर में स्थानापन्न रहीं।
सन् १९६६ में आपका वर्षावास पाली में था। कुछ समय से आपको रक्तचाप की शिकायत थी, पर आपश्री का आत्मतेज अत्यधिक था जिसके कारण आप कहीं पर भी स्थिरवास नहीं विराजीं। सन १९६६ (सं२०२३) में भाद्र शुक्ला १३ को संथारे के साथ रात्रि में आपका स्वर्गवास हआ। आप महान
१५८ द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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