SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ गच्छाम्यहं यदपि मत्समयानुकूलम्, अभिपूत और ईयासमिति एवं सूक्ष्म गुप्तियों के नन्तु सतीः सविनयं पथि वा मुनीनाम् । अवधान में निष्णात ऐसी सतीजी को भी जो सतिस्थलस्य सविधे सति मे मुनीन् वा, खुत्तो वन्दन न करे तो मैं उसको अपने मन में ग्रन्थाभिनन्दनपदे कुत एव नेयाम् ।३६। पृथिवी पर कर्महीन मानता हूँ ।४२।। यद्यपि मैं मेरे समय के अनुकूल सतियों और तस्मादहं सकलशीलगुणरुपेताम्, सन्तों के उपाश्रय के पास में होने पर सतियों को पुष्पाभिधानरुचिरां समताभिरूपाम। सविनय वन्दन के लिए जाता हूँ और फिर रास्ते में नभ्रामिमां समभिनन्दयितु सदाहम्,ि मिल जाएँ तो भी नमन करता हूँ, ऐसी स्थिति में पद्याञ्जलि सविनयं परमर्पयामि ॥४३॥ जब सतीजी का ग्रन्थाभिनन्दन हो रहा है तो मैं इसलिए मैं सभी शील और गुणों से युक्त समता ग्रन्थाभिनन्दन स्थान पर कैसे नहीं जाऊँ-यह कैसे से शोभित इन नम्र सदा पूजनीय पुष्पवती सती जी हो सकता है ? अतः मैं ऐसे समय पर तो पहुंचूंगा को अभिनन्दित करने के लिए इष्ट पद्याञ्जलि को ही ।३६। सविनय अर्पण करता हूँ।४३। कस्याप्यहो स्तुतिमयस्य कवेः फलस्य, भावेन भक्तिसुलभेन समर्पितोऽयम्, काव्यस्य वा प्रणयने न हि मे प्रशस्तिः । पद्याञ्जलिर्भवतु मे विभवं विधातुम् । स्यामप्यहं कथमपीह यशोऽधिकारी, वाचः प्रसादमभितः सुगमं विवर्ण्यम्, सत्याः प्रसादमहिमानमतो वदेयम् ।४०। प्राप्तुं जनः प्रयतते रचनाभिलाषः।४४।। अजी ! मेरी किसी भी स्तुतिमय कवि के काव्य भक्तिसुलभ भाव से समर्पित यह पद्याञ्जलि या फल के प्रणयन की कोई भी प्रशस्ति नहीं है। मेरे विभव को करने के लिए हो। सभी ओर से यदि मैं फिर भी इस में यश का अधिकारी होता हूँ सुगम विशेष वर्णन के योग्य सरस्वती के प्रसाद को तो मैं सतीजी की प्रसन्नता के महत्त्व को ही प्राप्त करने के लिये रचनाकार मनुष्य प्रयत्न करता कहँगा ।४। रहता है ।४४। ग्रन्थाभिनन्दन महोत्सवतोऽ पि तस्याः, सन्त्येव काम्यरचनाः कवयः पृथिव्याम्, काव्यं भवेदभिमतं परमं कथञ्चित् । वाणीसुधासुषमितां कवितां दधानाः । सत्याः प्रतापनिकरान्मम पुष्पवत्याः, तेषां पुरः कवयितु न हि योग्यता मे, वाणी सदाभ्युदयिनी मुनिदेवतानाम् ॥४१॥ काकोऽपि किं भवति पुखतयैव हंसः ॥४॥ मेरी उन सती पुष्पवतीजी के प्रतापों के समू- पृथिवी में स्पृहरणीय रचना करने वाले वाणी और ग्रन्थाभिनन्दन के महोत्सव के कारण के अमृत से परम शोभित कवित्व को धारण करते से भी किसी प्रकार परम अभिमत काव्य बन गया हुए कविजन हैं ही, उनके सामने कविता करने के हो तो हो, क्योंकि मुनियों और देवताओं की वाणी लिए मेरी योग्यता नहीं है, जैसे हंस के पंखों को सदा अभ्युदय करने वाली होती है अथवा मुनि- लगाने से ही काक भी क्या हंस होता है।४५॥ देवताओं के बड़े मंगलकारक वचन होते हैं ।४१ स्यामप्यहो कविरहं यदि पादपूर्तेः, हृद्यानवद्यचरिता चारणाभिपूताम्, सर्वे भवेयुरपरे कवयो मनुष्याः । ईर्यासमित्यतिगुगुप्त्यवधानसिद्धाम् । शब्दध्वनेविलसितार्थरसां सुभावाम्, एतादृशीमपि सती न नमेत् त्रिकृत्वः, पद्यालि रचयितुं कपयः किमेयुः ॥४६॥ मन्ये जनं मनसि तं भुविकर्म हीनम् ।।२। । यदि पादपूर्ति के कारण से मैं भी कवि हो प्रिय और पावन चरित और आचरणों से जाऊँ तो दूसरे सब मनुष्य कवि हो जायेंगे। तब हृदयोद्गारा १२५ www.jainelibrar
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy