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________________ साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ iii i iiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiii की कड़ी में महासती पुष्पवतीजी का नाम गौरव विषम भाव के नुकीले कॉटें उनके जीवन में नहीं से लिया जा सकता है। जिन्होंने त्याग और हैं । आपके सम्पर्क में जो भी आता है, उसे आप यही वैराग्य में पुरुषार्थ कर भौतिक भक्ति में भूले-भटके सन्देश देती हैं, कि पुष्प की तरह खिलो,महको। यदि मानवों को सन्मार्ग दिखाया है। तुम्हारे जीवन में सुगंध है तो भंवरे अपने आप आपश्री कितने भाग्यशाली रहे कि तेरह वर्ष तुम्हारे पर मँडरायेंगे। यदि तुम्हारा जीवन पुष्प की वय में ही साधना की ओर कदम बढ़ाए। प्लास्टिक के पुष्पों की तरह सुगन्धरहित है तो अपने नाम के अनुरूप सुन्दर कार्यकर यह सिद्ध कोई भी तुम्हारे आस-पास नहीं फटकेगा । अतः कर दिया कि सुख का सागर हमारे अन्दर हो जीवन-पुष्प में सुगन्ध पैदा करने का प्रयास करो। अठखेलियाँ कर रहा है। हम बहिर्मुखी बनकर मैंने अपना जीवन सद्गुरुणीजी के चरणों में भटक रहे हैं । सद्गुरु के संस्पर्श को पाकर जीवन समर्पित किया है। मैं चाहती हूँ कि मेरे जीवन अन्तर्मुखी बनता है। और अन्तर्मुखी जीवन ही पुष्प में सद्गुणों का साम्राज्य हो । उसी के लिए परमात्म तत्त्व के संदर्शन करता है। महासती मैं अहर्निश प्रयत्नशील हूँ । मैं कर्नाटक की पुष्पवतीजी उसी राह की राही हैं इसीलिए वे राजधानी बैंगलोर में जन्मी और विश्व सन्त वन्दनीय हैं, अर्चनीय हैं। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी के पावन प्रवचनों जिसने एक क्षण के लिए भी संयम धर्म को सुनकर मेरे अन्तहृदय में वैराग्य का पया स्वीकार कर लिया, वह धन्य बन जाता है तो उछाले मारने लगा और अन्त में माता-पिता की जिन्होंने पचास-पचास वर्ष तक संयमसाधना की अनुमति प्राप्त कर मैंने सद्गुरुणीजी के चरणों में हो उनके जीवन का कहना ही क्या ? आपने अपने आर्हती दीक्षा ग्रहण को । दीक्षा का अर्थ जीवन को जीवन-स्वर्ण को संयम से कसकर कुन्दन बनाया मांजना है, कषाय को कम करना है, राग-द्वेष की है। धन्य हैं आप, धन्य हैं आपकी मातेश्वरी और परिणति से मुक्त होना है तथा स्वाध्याय, ध्यान में धन्य हैं आपके लघु भ्राता जो आज श्रमणसंघ के निमग्न होना । मैं चाहता हूँ कि अनन्त-अनन्त काल # उपाचार्य हैं। से इस विराट विश्व में आत्मा परिभ्रमण करती दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के सुनहरे अवसर पर हुई आ रही है । वह परिभ्रमण बन्द हो । हमारा हार्दिक अभिनन्दन स्वीकार करें और हमें सद्गुरुणीजी के चरणों में बैठकर मैं ज्ञान की यह आशीर्वाद दें कि हमारी साधना भी उज्ज्वल साधना करती हूँ । इनके चरणाविन्दों में बैठने से और समुज्ज्व ल बने । मुझे अपार आह्लाद की अनुभूति होती है और अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति होती है। आलोक-स्तम्भ वस्तुतः सद्गुरुणीजी का जीवन महान है । उनके जीवन के कण-कण में वात्सल्य है। उनका जीवन –महासती सुप्रभाजी हमारे लिए आलोक स्तम्भ की तरह है। मैं इस रत्नगर्भा वसुन्धरा ने समय-समय पर अनेक . मंगल बेला में अपने हृदय की अनन्त आस्था अनमोल रत्न प्रदान किए हैं। उनमें महासती श्री सद्गुरुणीजी के चरणों में समर्पित करती हैं। और पुष्पवतीजी का नाम बहुत ही निष्ठा के साथ यह मंगल कामना करती हूँ कि आपके कुशल लिया जा सकता है। उनका व्यक्तित्व बह आयामी : नेतृत्व में हमारी संयमसाधना, तपःआराधना है । वे पुष्प की तरह सदा खिली रहती हैं । यदि " निरन्तर प्रगति करती रहे । यही आप आशीर्वाद कोई सम्मान करता है या अपमान करता है । पर प्रदान करें। उनके चेहरे पर सदा समभाव चमकता रहता है । ४८ | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन www.jainelibe
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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