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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती आभनन्दन ग्रन्थ । । शासन की गौरव-गरिमा में अभिवृद्धि हो, जैन-धर्म "शैले शैले न माणिक्य, मौक्तिकम् न गजे गजे । का प्रचार-प्रसार हो, भगवान महावीर के अहिंसा, साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनम् न वने वने ।।" । सत्य, अनेकान्त, अपरिग्रह प्रभृति सिद्धान्त मोह रुपी अर्थात् प्रत्येक पर्वत पर मणियाँ नहीं होती, निद्रा मे सुषुप्त प्राणियों को जागृत करें, इस हेतु हर हाथी के मस्तक में मुक्ता नहीं होती, हर एक आप सतत प्रयत्नशील रहती है। आपके आगम- जंगल में चन्दन के वृक्ष नहीं होते तथा प्रत्येक स्थान साहित्य का अध्ययन, मनन और चिन्तन बहत ही पर सज्जन पुरुष नहीं मिलते हैं। साधु वही है, गहन है । जिस प्रकार एक दीपक अपनी देह के कण- जो स्व और पर के कल्याण के लिए सदा सर्वदा कण को जलाकर आवास में परिव्याप्त अंधकार को तत्पर रहें। जो दीपक की तरह स्वयं जलक दूर कर आलोक एवं प्रकाश से उसे प्रज्वलित कर को ज्ञान का प्रकाश दें। स्वयं कष्ट सहन करके भी देता है, उसी प्रकार महासती श्री पुष्पवतीजी न० जो दूसरों का सन्मार्ग प्रशस्त करें । उपर्युक्त पंक्तियाँ भी अपने संयमी तथा साधनामयी जीवन का प्रत्येक साध्वीरत्न श्री पुष्पवतीजी म० सा० के नव्य/ + क्षण समाज को समर्पित कर रही हैं। अंग्रेजी में भव्य जीवन पर वास्तविक रूप से सफल होती है। एक सक्ति है-"Humility and love are the esse- महासतीजी म० श्री वर्धमान स्थानकवासी nce of true religion" महासतीजी का जीवन जैन श्रमणसंघ रूपी वाटिका के एक सरभित भी नम्रता और प्रेम से परिपूर्ण है। सामाजिक कुसुम की तरह है। जो स्वयं ज्ञान, दर्शन चारित्र सुधार, जागृति के लिए आप सदैव कटिबद्ध रहती आदि गुणों से महक रही है और जो भी आपकी १ है। कार्यकत्ताओं का उत्साह वद्धिंगत कर आगे सन्निधि प्राप्त कर रहा है, उसे भी गौरवमयी बढ़ने के लिए सर्वदा प्रेरणा प्रदान करती है। सुवासित लुटा रही है। सेवा, त्याग, सहिष्णुता आपका जीवन गंगा की तरह शीतल, आकाश व तपाराधना में ही आपके संयमी जीवन की सौरभ 8 की भाँति विमल, सुधा के समान स्वच्छ, सर्य के समाविष्ट है। आपका जीवन सही मायने में समान समुज्ज्वल, सुमेरु के समान उच्च, एवं समुद्र साधुत्व के अनुरूप है। आपकी वाणी में हीरा के समान गम्भीर है। आप विनयशील. निरभि- जैसी चमक मोती जैसी दमक, तथा स्फटिक मणी मानी एवं प्रतिभासम्पन्न होने पर भी तप, त्याग, के समान पारदर्शिता दृष्टिगोचर होती है । आपकी 3 सेवा, उदारता, क्षमा,निर्भयता आदि गुणों की उपा- प्रवचनधारा ऐसी लगती है, जैसे भक्ति सूधा रूपी सना करने वाली हैं। उमियाँ तँरगितं रही हों। "उदार चरितानां वसुधैव कुटुम्बकम्' इस उक्ति आप एक महान साधिका के रूप में हमारे समक्ष E को आप चरितार्थ करने वाली है। आपका अन्त- परिलक्षित हो रही है। प्रतिष्ठा और ज्ञान का न हृदय अत्यन्त विशाल एवं उदार है । सम्पूर्ण पृथ्वी- आपमें किंचित् मात्र भी अभिमान नहीं है । आपकी वासियों को परिवार की तरह समझने वाला प्राणी वाणी में ओज, विचार शक्ति में गाम्भीर्य, और ही महान् एवं उच्च गिना जाता है। समाज का विचारों में स्पष्टता व निर्भयता झलकती है। कायाकल्प करके उसे सुव्यवस्थित संगठन के रूप में आपकी व्याख्यान की शैली इतनी अत्युत्तम है कि स्थापित करने की तड़फ आप में अन्तनिहित है। श्रोतागण सहज ही आपकी ओर आकर्षित हो जाते "समयं गोयम मा ! पमायए" आगम का यह कथन हैं। सर्वगुण सम्पन्न होने पर भी आप स्वभाव से आपके जीवन पर शत-प्रतिशत खरा उतरता है। सरल, विनम्र, मिलनसार एवं निरभिमानी है। एक क्षण भी आप व्यर्थ नहीं खोती है। आपमें प्रत्येक साध्वी को निभाने की पूर्ण क्षमता ___ संस्कृत में एक श्लोक है-- है । तथा आडम्बर व दिखावे से आपके मन WITHILIARRHEHREE प्रबुद्ध समन्वय साधिका | ४५ www.jain
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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