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________________ से डिगते हुए को स्थिर करना; यह धर्म-विनय है। अंधेरे में भी; कोई न देखता हो; वहां भी, एकान्त में भी धर्म से विचलित न होना; धर्म-विनय है । क्योंकि धर्म-विनयी साधक जानता है कि व्यक्ति एवं समाज के धारण-पोषण-रक्षण एवं सत्त्वसंशोधन के लिए धर्मपालन की अनिवार्य आवश्यकता है। उसके बिना समाज में अव्यवस्था पैदा होगी; समाज की सुख-शान्ति चौपट हो जायगी। ज्ञान-विनय-ज्ञानी-विनय ज्ञान का विनय करना ज्ञान-विनय है। इसी प्रकार ज्ञानगुणसम्पन्न व्यक्ति का विनय ज्ञानी-विनय है । वस्तुस्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानना ही शुद्ध ज्ञान है । इसके विपरीत अशुद्ध ज्ञान अज्ञान है । जिस में ज्ञान-विनय होता है; वह इतना नम्र होता है कि कहीं भी, किसी के पास भी वास्तविक ज्ञान मिलता हो; वह उससे ग्रहण करने में हिचकिचाएगा नहीं। सोना यदि गन्दी जगह भी पड़ा हो तो कौन छोड़ता है? उसी प्रकार ज्ञान भी किसी के पास हो, उसे प्राप्त कर लेने में हर्ज ही क्या है? ज्ञान या ज्ञानी का अविनय ५ प्रकार से होता है—(१) प्रद्वेष-ज्ञान से या ज्ञानी से द्वेष करना। अपने माने हुए शास्त्र के अतिरिक्त कहीं सत्यज्ञान या ज्ञानी मिलता हो, परन्तु तेजोद्वेषवश उसका विरोध करना । (२) निह्नव-जिससे या जिसके निमित्त से ज्ञान प्राप्त किया हो उसका नाम छिपाना । (३) मात्सर्य-किसी ज्ञान या ज्ञानी से डाह करना; उस पर झूठे दोषारोपण लगाना । (४) आशातना-ज्ञान या ज्ञानी की आशातना करना । जो ज्ञानदाता हैं; उसका तो विनय करना ही चाहिए, परन्तु ज्ञान के जो साधन हैं; उपकरण हैं—शास्त्र, ग्रन्थ, पुस्तकादि, उनकी भी बेअदबी करना; उन्हें पैर लगाना; थूक लगाना; उन्हें फाड़-तोड़ कर गन्दगी में फैंक देना; उनके द्वारा मिले हुए ज्ञान को क्रियान्वित करने का प्रयत्न न करना भी ज्ञान का अविनय है। क्योंकि सम्पूर्णज्ञान तो तीर्थंकर के पास है। तीर्थंकर केवलज्ञान द्वारा जान कर जो सुनाते हैं, उसे गणधर व्यवस्थित ढंग से शब्दों में रचते हैं; गूंथते हैं; फिर उसे लिपिबद्ध किया जाता है; वही श्रुतज्ञान कहलाता है। इसलिए श्रुतज्ञान के परमनिमित्त शास्त्र आदि का बहुमान करने की दृष्टि से ज्ञान (श्रुत) पंचमी को शास्त्र-ग्रन्थादि को नमन किया जाता है। ज्ञान की तरह ज्ञान के ये प्रबल निमित्त-शास्त्रादि भी आदरणीय हैं । (५) अन्तराय-ज्ञानप्राप्ति में अन्तराय डालना, किसी जिज्ञासु को ज्ञान देने में हिचकना, ज्ञानियों द्वारा ज्ञानप्रसार में रोड़े अटकाना, विक्षेप डालना अथवा कपट करके सिखाना ये सब भी ज्ञान के प्रति अविनय हैं । २८ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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