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________________ करने वाला कोई भी जिज्ञासु जैन धर्म के रहस्य को छू सकता है। सचमुच यह महान ग्रंथ जैन दर्शन का सम्यक् बोध कराने वाला अद्भुत ग्रंथ है । इसके लेखक ने अलग-अलग विषयों पर अनेक संदर्भ, दृष्टांत, साक्ष्य आदि के समर्थन से अत्यंत उपयोगी बनाया है। यह जरूरी नहीं कि इस ग्रंथ का पठन मात्र विद्वान ही कर सकता है। हर कोई जिज्ञासु को अपनी जिज्ञासा तृप्ति के लिए यह सहज-सरल, सुगम रचना है। इसे यदि हम जैन धर्म का विश्व कोष (Encyclopaedia of Jainism) कहें तो अनुचित न होगा। इसमें सुदेव, सुगुरु, सुधर्म, गुणस्थान, सम्यवत्व का स्वरूप, मूर्तिपूजा, चारित्र, पापस्थान, भक्ष्याभक्ष्य, श्रावक के दिवसीय कर्म, रात्रि कर्म, पर्वकर्म, जन्म कृत्य, जैनमत का इतिहास आदि सभी महत्वपूर्ण विषयों पर तर्क पूर्ण विचार किया गया है। इस ग्रंथ के प्रथम अध्याय में देव का स्वरूप, तीर्थंकरों के नाम, वर्ण, माता-पिता के नाम, चौबीस तीर्थंकरों के बावन बोल आदि पर विचार व्यक्त किया गया है। दूसरे अध्याय में कुदेव का स्वरूप निरुपित किया गया है। इसमें कुदेवों में स्त्री-सेवन आदि से सम्बंधित दूषण, जगत् के कर्ता का निर्णय, संसारोत्पत्ति से सम्बंधित वेदान्तमत का खण्डन आदि की विस्तृत चर्चा की गई है। तीसरे अध्याय में गुरुतत्व के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। इसमें पांच महाव्रतों का स्वरूप चरण सित्तरी और करण-सित्तरी के सत्तरभेद तथा शास्त्रोक्त गुरु के स्वरूप आदि मुद्दों पर प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्याय में कुगुरु के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। क्रियावादियों के कालवादी, ईश्वरवादी, नियतवादी, आत्मवादी, स्वभाववादी आदि पांच विकल्प पाकर उनके पृथक-पृथक रूप में एक सौ अस्सी मत गिनाये हैं। ___ पांचवे परिच्छेद में धर्मत्त्व का स्वरूप निवेदित है जिसमें नौतत्व के प्रकारों का स्वरूप सुविस्तृत ढंग से वेदान्तवाद की तुलना करते हुए समझाया है। छठे अध्याय में चौदह गुणस्थान के स्वरूप को दस भागों में समझाया है। ___ सातवें अध्याय में सम्यक्त्व दर्शन के स्वरूप की चर्चा है । जिसमें अरिहंत प्रभु की प्रतिमा की पूजा करना, गुरुतत्त्व, धर्मतत्त्व, निश्चय, सम्यवत्व, उसकी करनी आदि है तथा वेद के परंपरागत अर्थ को छोड़कर नयी परिभाषा गढ़ने की आवश्कता को रसमय शैली में समझाने का प्रयत्न किया है। श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ ३७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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